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________________ १, २, १४०. ] दव्यमाणानुगमे कसायमग्गणा भागाभागपरूवणं [ ०३९. एत्थ समुच्चय च सदेोवादाणं कायव्वं ? ण, च-सद्देण विणा वि तदट्ठोवलद्धीदो । एदेसिं दोन्हं गुणड्डाणाणमेगजोगकरणं किमट्ठमिदि चे, ण एस दोसो, दव्त्रयमाणं पडि एदेसिं गुणट्ठाणाणं पच्चासत्तिं पेक्खिय एगत्तविरोहाभावादो' । ण च ओघत्तं विरुज्झदे, निव्विसेसणत्तादो । सजोगिकेवली ओघं ॥ १४० ॥ सजोगि अजोगिकेवलीणमेगमेव सुत्तं किष्ण कीरदे, केवलित्तं पडि पच्चासत्तिसंभवादो १ ण, दोन्हं पमाणगदपहाणपच्चासत्तीए अभावादो । कथं पमाणस्स पधाणत्तं ! तेणेत्थ अहियारादो | सेसं सुगमं । भागाभागं वत्तस्समो । सव्वजीवरासिमणंतखंडे कए तत्थ बहुखंडा चउकसायमिच्छाइट्टिणो भवंति । एगखंडमकसाइणो गुणपडिवण्णा च । पुणो चदुकसायमिच्छाइट्ठिरासिमावलियाए असंखेज्जदिभाएण खंडिय तत्थेगखंडं पुध ट्ठविय सेसबहुखंडे चत्तारि शंका- इस सूत्र में समुच्चयार्थ च शब्दका ग्रहण करना चाहिये १ समाधान -- नहीं, क्योंकि, च शब्दके विना भी समुच्चयरूप अर्थकी उपलब्धि हो जाती है । शंका- इन दोनों गुणस्थानोंका एक योग किसलिये किया है ? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, द्रव्यप्रमाणके प्रति दोनों गुणस्थानोंकी प्रत्यासत्ति देखकर एक योग करने में कोई विरोध नहीं आता है । care भी विरोधको प्राप्त नहीं होता है, क्योंकि, ये दोनों गुणस्थान निर्विशेषण हैं। सयोगिकेवली जीव ओघप्ररूपणाके समान हैं ॥ १४० ॥ शंका – सयोगिकेवली और अयोगिकेवली, इन दोनोंका एक ही सूत्र क्यों नहीं बनाया है, क्योंकि, केवलित्व के प्रति इन दोनोंकी प्रत्यासत्ति पाई जाती है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, इन दोनोंकी प्रमाणगत प्रधान प्रत्यासत्ति नहीं पाई जाती है, इसलिये इन दोनोंका एक सूत्र नहीं किया । शंका - प्रमाणको प्रधानता किस कारणसे है ? समाधान - क्योंकि, यहां उसका अधिकार है। शेष कथन सुगम है । अब भागाभागको बतलाते हैं- सर्व जीवराशिके अनन्त खंड करने पर उनमेंसे बहुभाग चार कषाय मिथ्यादृष्टि जीव हैं और एक भागप्रमाण अकषायी और गुणस्थानप्रतिपक्ष जीव है । पुनः चार कषाय मिथ्यादृष्टि राशिको आवलीके असंख्यातवें भागले खंडित करके उनमें से एक खंडको पृथक् करके शेष बहुभाग के चार समान पुंज करके स्थापित करना १ अ प्रतौ ' णाणात्तविरोहादो भावादो' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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