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________________ १४.] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, २, १४.. कए बहुखंडा तिणाणिसंजदासजदा होति । सेसं जाणिय वत्तव्यं । अप्पाबहुअं तिविहं सत्थाणादिभेएण । मदि-सुदअण्णाणीसु सत्थाणं णत्थि । कारणं पुवमणिदं । सासणसम्माइद्विसत्थाणप्पाबहुगे ओघभंगो । विभंगणाणिमिच्छाइट्ठीणं सत्थाणस्स देवमिच्छाइट्ठीणं सत्थाणभंगो । तिणाणीसु मदि-सुदणाणीसु च असंजदसम्माइट्ठि-संजदासंजदेसु सत्थाणमोघं । सत्थाणप्पाबहुगं गदं । ___परत्थाणे पयदं । सव्वत्थोवो मदि-सुदअण्णाणिसासणसम्माइट्ठिअवहारकालो । दव्वमसंखेज्जगुणं । पलिदोवममसंखेज्जगुणं । मिच्छाइट्ठिदव्यमणंतगुणं । सव्वत्थोवो विभंगणाणिसासणसम्माइट्ठिअवहारकालो । दव्यमसंखेज्जगुणं । पलिदोवममसंखेज्जगुणं । विभंगणाणिमिच्छाइद्विअवहारकालो असंखेज्जगुणो । विक्खंभई असंखेज्जगुणा । ( सेढी असंखेज्जगुणा । ) दबमसंखेज्जगुणं । पदरमसंखेज्जगुणं । लोगो असंखेजगुणो । सबत्थोवा मदि-सुदणाणिणों' चत्तारि उवसामगा । खवगा संखेज्जगुणा । अप्पमत्तसंजदा करने पर बहुभाग तीन ज्ञानयाले संयतासंयत जीव हैं। शेषका जानकर कथन करना चाहिये। स्वस्थान आदिके भेदसे अल्पबहुत्व तीन प्रकारका है। उनमेंसे मत्यज्ञानी और श्रुतामानी जीवों में स्वस्थान अल्पबहुत्व नहीं पाया जाता है। कारण पहले कहा जा चुका है। मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी सासादनसम्यग्दृष्टियोंका स्वस्थान अल्पबहुत्व ओघ स्वस्थान अल्पबहुस्वके समान है। विभंगज्ञानी मिथ्यादृष्टियोंका स्वस्थान अल्पबहुत्व देव मिथ्यादृष्टियोंके स्वस्थान अरूपबहुत्वके समान है। तीन शानवाले असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयतोंमें तथा मति और श्रुत इन दो ज्ञानवाले असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयतों में स्वस्थान अल्पबहुत्व ओघस्वस्थान अल्प बहुत्वके समान है । इसप्रकार स्वस्थान अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। अब परस्थानमें अल्पबहुत्व प्रकृत है- मत्यशानी और श्रुताशानी सासादनसम्य. ग्दृष्टियोंका अवहारकाल सबसे स्तोक है। उन्हींका द्रव्य अवहारकालसे असंख्यातगुणा है । पल्योपम द्रव्यप्रमाणसे असंख्यातगुणा है। मत्यक्षानी और श्रुताज्ञानी मिथ्यादृष्टियोंका द्रव्य पल्योपमसे अनन्तगुणा है। विभंगशानी सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल सबसे स्तोक है। उन्हींका द्रव्य अवहारकालसे असंख्यातगुणा है। पल्योपम द्रव्यप्रमाणसे असंख्यातगुणा है। विभंगशानी मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल पल्योपमसे असंख्यातगुणा है । उन्हींकी विष्कंभसूची अवहारकालसे असंख्यातगुणी है। (जगश्रेणी विष्कंभसूचीसे असंण्यातगुणी है। ) जगश्रेणीसे उन्हींका द्रव्य असंख्यातगुणा है । द्रव्यप्रमाणसे जगप्रतर असंख्यातगुणा है। जगप्रतरसे लोक असंख्यातगुणा है । मतिज्ञानी और श्रुतज्ञानी चार गुणस्थानोंके उपशामक सबसे स्तोक हैं। मतिज्ञानी और श्रुतशानी क्षपक जीय उपशामकोंसे संख्यातगुणे हैं । मतिशानी और श्रुतक्षानी अप्रमत्तसंयत जीव क्षपकोंसे संख्यातगुणे हैं। मतिज्ञानी और श्रुतज्ञानी प्रमत्तसंयत जीव १ प्रतिषु ' मदि-सुदणाण' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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