________________
२७४ ]
वाणवैतरमिच्छा इद्विपमाणमागच्छदि ।
छक्खंडागमे जीवाणं
सासणसम्माइड - सम्मामिच्छाइट्टि - असंजदसम्माइट्ठी ओघं
[ १, २, ६४.
॥ ६४ ॥
दव्वडियणए अवलंबिज्जमाणे केण वि अंसेण विसेसाभावादो ओघत्तमिदि बुच्चदे । पज्जवडियणए अवलंबिज्जमाणे अस्थि विसेसो । तं विसेसं पुरदो भणिस्सामा |
उक्त अवहारकालसे जगप्रतरके भाजित करने पर वाणव्यन्तर मिथ्यादृष्टियों का प्रमाण आता है । विशेषार्थ- - वाणव्यन्तर देवोंका अवहारकाल तीनसौ योजनोंके अंगुलोंका वर्ग है और पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिमतियोंका अवहारकाल छहसौ योजनों के अंगुलोंका वर्ग है । तीन सौ योजनोंके प्रतरांगुल ५३०८४१६०००००००००० होते हैं और छहसौ योजनोंके प्रतरांगुल २१२३३६६४०००००००००० होते हैं। किसी विवक्षित राशि के वर्गसे उस राशिसे दूनी राशिका वर्ग चौगुना होता है। जैसे ४ के वर्ग १६ से, ४ के दूने ८ का वर्ग ६४ चौगुना है। तथा किसी एक भाज्यमें ८ के वर्ग ६४ का भाग देनेसे जो लब्ध आयगा, ४ के वर्ग १६ का भाग देनेसे पूर्वोक लब्धसे चौगुना ही लब्ध आयगा । इसीप्रकार यहां तीनसौ योजनों के प्रतरांगुलोंसे छदसौ योजन प्रतरांगुल चौगुने होते हैं, अतएव छहसौ योजनोंके प्रतरांगुलोंका जगप्रतर में भाग देनेसे तिर्यच योनिमतियों का जितना प्रमाण लब्ध आयगा, उससे, तीनसौ योजनोंके प्रतरांगुलोंका उसी जगप्रतर में भाग देने पर वाणव्यन्तर देवोंका प्रमाण, चौगुना ही लघ्ध आता है पर अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार में तिथंच योनिमतियोंसे वाणव्यन्तर देव संख्यातगुणे कहे हैं और उन्हींकी देवीयां देवोंसे संख्यातगुणी कही हैं । देवगतिमें निकृष्ट देवके भी बस देवियां होती हैं । इसप्रकार आगमानुसार तिर्यच योनिमतियोंके प्रमाणसे वाणव्यन्तर देवोंका प्रमाण १+३२ = ३३ गुणेसे अधिक ही होना चाहिये पर पूर्वोक्त भागहार के अनुसार चौगुना ही आता है। इससे प्रतीत होता है कि उक्त दोनों भागद्दारोंमेंसे कोई एक भागहार असत्य है । यदि वाणव्यन्तरोंका भागद्दार सत्य है ऐसा मान लिया जाता है तो योनिमतियोंका भागहार छहसौ योजन के प्रतरांगुलोंसे संख्यातगुणा होना चाहिये और यदि तिर्यंच योनिमतियों का भागहार सत्य मान लिया जाय तो वाणव्यन्तरोंका भागहार तीनसौ योजनोंके प्रतरांगुलोंका संख्यातवां भाग होना चाहिये ।
I
सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि वाणव्यन्तर देव सामान्य प्ररूपणाके समान पल्योपमके असंख्यातवें भाग हैं ॥ ६४ ॥
Jain Education International
द्रव्यार्थिक नयका अवलम्बन करने पर किसी भी प्रकारसे गुणस्थानप्रतिपन्न सामान्य प्ररूपणा और गुणप्रतिपन्न वाणव्यन्तरोंकी प्ररूपणा में विशेषता न होनेसे गुणस्थानप्रतिपन्न वाणव्यन्तरोंकी प्ररूपणा गुणस्थानप्रतिपन्न सामान्य प्ररूपणा के समान कही । पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन करने पर तो विशेषता है ही । उस विशेषताका कथन आगे करेंगे ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org