SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 368
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १, २, ६५. ] दव्वपमाणाणुगमे देवगदिपमाणपरूवणं [ २७५ किमहं सव्वत्थ दव्वट्ठिय-पज्जवट्ठियण यद्दयमवलंबिय परूवणा कीरदे १ ण एस दोसो, संगह- वित्थररुचिसत्ताणुग्गहवावदत्तादो । अण्णहा असमाणदापसंगादो । जोइसियदेवा देवगणं भंगो ॥ ६५ ॥ देव गईणमिदि बहुवयणणिदेसो ण घडदे, एक्काए देवगईए बहुत्ताभावादो इदि १ ण एस दोसो, संगहिदाणेयत्ते एयत्ते बहुत्ताविरोहादो । जोइसेियदेवा इदि गुणाविसिदेवरगहणादो जोइसियदेवेसु चदुण्हं गुणट्ठाणाणं पमाणपरूवणा ओघपरूवणाए तुल्ला | एसो दव्वट्ठियणयमवलंबिय णिद्देसो कओ । पज्जवट्टियणए अवलंबिज्जमाणे अस्थि विसेस । तं जहा - तत्थ ताव मिच्छाइट्ठीसु विसेसो बुच्चदे | वाणवें तरादिसेस सव्वे देवा जोइसियदेवाणं संखेजदिभागमेत्ता हवंति । तेहि सामण्णदेवरासिमोवट्टिदे संखेज्ज शंका - सर्वत्र द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक इन दो नयोंका अवलम्बन करके प्रमाणप्ररूपणा क्यों की जा रही है ? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, संग्रहरुचि और विस्तररुचि शिष्यों के अनुग्रहके लिये इन दोनों नयोंका व्यापार हुआ है। यदि ऐसा नहीं माना जाय तो असमानताका प्रसंग आ जाता है । देवगतिप्रतिपन्न सामान्य देवोंकी संख्या जितनी कही है ज्योतिषी देव उतने हैं ॥ ६५ ॥ शंका- सूत्र में आये हुए ' देवगईणं' यह बहुवचन निर्देश घटित नहीं होता है, क्योंकि, देवगति एक है, अतः उसे बहुत्व प्राप्त नहीं हो सकता है ? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, जिसमें बहुत्व संगृहीत है ऐसे एकत्वमें बहुत्वके रहने में विरोध नहीं आता है । " 'जोइसियदेवा' इसप्रकार मिथ्यादृष्टि आदि गुणोंकी विशेषता से रहित सामान्य ज्योतिषी देवोंका ग्रहण करनेसे ज्योतिषी देवोंमें चारों गुणस्थानोंकी संख्या प्ररूपणा सामान्य देवगतिसंबन्धी संख्या प्ररूपणा के समान है, ऐसा सिद्ध होता है । यह कथन द्रव्यार्थिक नयका आश्रय लेकर किया है । परंतु पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन करने पर विशेषता है ही । वह इसप्रकार है । उसमें भी पहले मिध्यादृष्टियों में विशेषता को बतलाते हैं- चाणव्यन्तर आदि शेष संपूर्ण देव ज्योतिषी देवोंके संख्यातवें भाग हैं। उनसे सामान्य देवराशिके अपवर्तित करने पर १ असंखिज्जा जोइसिआ । अनु. द्वा. १४१ सू० १७९ पत्र. XX पदरं xx जोइसियाणं च परिमाणं ॥ गो. जी. १६० छप्पन्न दोस गंगुलसूइपएसि साणे त्थीय संखगुणा । पञ्चसं. २, १५. २ प्रतिषु ' संगहिदो यत्ते ' इति पाठः । ३ प्रतिषु परूवण दिवोध ' इति पाठः । 6 Jain Education International For Private & Personal Use Only सदछप्पण्ण अंगुलाणं च । कदिहिदभाइओ पयरो । जोइसिएहिं हीरह www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy