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________________ २७६ ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, २, ६६. रुवाणि आगच्छंति । ताणि विरलिय दव्वमिच्छाइट्ठिसि समखंड करिय दिण्णे रूवं पडि वाणवेंतरप्पमुहमिच्छाइट्ठिरासी पावेदि । तमुवरिमरूवधरिदसामण्णदेवमिच्छाइट्ठिसिम्हि अवणिदे जोइसियदेवमिच्छाइट्ठिरासी होदि । एवं समकरणं करिय रूवूणमिविरलणाए देवअवहारकाले भागे हिदे पदरंगुलस्स संखेज्जदिभागो आगच्छदि । तं देव - अवहारकालम्हि पक्खित्ते जोइसियदेवमिच्छाइट्ठिअवहारकालो होदि । सेसं देवमिच्छाइभिंगो | सासणादिगुणड्डाणगदविसेसं पुरदो वत्तइस्लामो | सोहम्मीसाणकप्पवासियदेवेषु मिच्छाइट्ठी दव्वपमाणेण केवडिया, असंखेज्जा ॥ ६६ ॥ एदस्त सुत्तस्स अत्थो अवगदो त्ति पुणो ण बुच्चदे 1 असंखेज्जासंखेज्जाहि ओसप्पिणि उस्सप्पिणीहि अवहिरंति काले ॥ ६७ ॥ एदस्स सुत्तस्सत्थो सुगमो चेय । सव्वत्थ सुहुम - सुदुमदर - सुहमतमभेष्ण तिविहा परूवणा किमहं परुविज्जदे ? ण एस दोसो, तिब्ब मंद- मज्झिमसत्ताणुग्गहद्वत्तादो । अण्णा संख्यात लब्ध आते हैं। उनका (संख्यातका) विरलन करके सामान्य देव मिध्यादृष्टि राशिको समान खंड करके दे देने पर विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति वाणव्यन्तर आदि मिथ्यादृष्टि देवराशि प्राप्त होती है । उसे उपरिम एकके प्रति प्राप्त सामान्य देव मिध्यादृष्टि राशिमेंसे घटा देने पर ज्योतिषी मिध्यादृष्टिराशि आती है । इसप्रकार समीकरण करके एक कम अधस्तन विरलनसे देव अवहारकालके भाजित करने पर प्रतरांगुलका संख्यातवां भाग लब्ध आता है । उसे देव अवहारकालमें मिला देने पर ज्योतिषी देव मिथ्यादृष्टि अवहारकाल होता है। शेष कथन देव मिध्यादृष्टि प्ररूपणा के समान है । सासादन आदि गुणस्थानगत विशेषताको आगे बतलायेंगे | सौधर्म और ऐशान कल्पवासी देवों में मिध्यादृष्टि जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? असंख्यात हैं ॥ ६६ ॥ इस सूत्र का अर्थ अवगत है, इसलिये फिरसे नहीं कहते हैं । कलकी अपेक्षा सौधर्म और ऐशान कल्पवासी मिथ्यादृष्टि देव असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियोंके द्वारा अपहृत होते हैं ।। ६७ ॥ इस सूत्र का अर्थ सुगम ही है । शंका- सब जगह सूक्ष्म, सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम के भेदसे तीन प्रकारकी प्ररूपणा किसलिये कही जा रही है ? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, तीव्र बुद्धिवाले, मंद बुद्धिवाले और मध्यम बुद्धिवाले जीवोंके अनुग्रहके लिये तीन प्रकार की प्ररूपणा कही है। यदि ऐसा न माना जाय तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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