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________________ १, २, ६८.] दव्वपमाणाणुगमे देवगदिपमाणपरूवणं [२०७ जिणाणं सव्वसत्तसमाणत्तविरोहो । ण पुणरुत्तदोसो वि जिणवयणे संभवइ, मंदबुद्धिसत्ताणुग्गहट्ठदा एदस्स साफल्लादो । खेत्तेण असंखेज्जाओ सेढीओ पदरस्स असंखेज्जदिभागो । तासिं सेढीणं विक्खंभसूई अंगुलविदियवग्गमूलं तदियवग्गमूलगुणिदेण ॥ ६८ ॥ ___ पदरस्स असंखेजदिभागो इदि णिदेसो जगपदरादिउवरिमवियप्पणियत्तावणहो । असंखेज्जाओ सेढीओ इदि णिदेसो जगसेढीदो हेट्ठिमअसंखेज्जासंखेजवियप्पणियत्तावणहो । तासि सेढीणं पमाणपरिच्छेदं काउं अंगुलविदियवग्गमूलं तदियवग्गमूलगुणिदेण इदि विक्खंभसूई वुत्ता। गुणिदेणेत्ति पढमाणिद्देसो दट्टयो । सूचिअंगुलविदियवग्गमूलं तदियवग्गमूलेण गुणिदं सोहम्मीसाणमिच्छाइट्ठिविक्खंभसूई होइ। अहवा सूचिअंगुलतदियवग्गमूलेण पढमवग्गमूले भागे हिदे सोहम्मीसाणदेवमिच्छाइटिविक्खंभसई होदि । एदिस्से विक्खंभसूईए खंडिदादओ जहा णेरड्यविक्खंभसूईए तहा वत्तव्या । जिनदेव सर्व जीवों में समान परिणामी होते हैं इस कथनमें विरोध आ जायगा। जिनवचनमें पुनरुक्त दोष भी संभव नहीं है, क्योंकि, जिनवचन मंदबुद्धि शिष्योंका भी अनुग्रह करनेवाला होनेसे पुनः पुनः कथन करनेकी सफलता है। क्षेत्रकी अपेक्षा सौधर्म और ऐशान कल्पवासी मिथ्यादृष्टि देव असंख्यात जगश्रेणीप्रमाण हैं जो असंख्यात जगश्रेणियोंका प्रमाण जगप्रतरके असंख्यातवें भाग है। उन असंख्यात जगश्रेणियोंकी विष्कंभसूची, सूच्यंगुलके द्वितीय वर्गमूलको तृतीय वर्गमूलसे गुणा करने पर जितना लब्ध आवे, उतनी है ॥ ६८॥ सूत्रमें 'जगप्रतरका असंख्यातवां भाग' यह निर्देश जगप्रतर आदि उपरिम विकल्पोंके निराकरण करनेके लिये दिया है। ' असंख्यात जगश्रेणियां' इसप्रकारका निर्देश जगश्रेणीसे जीचेके असंख्यातासंख्यात विकल्पोंकी निवृत्तिके लिये दिया है। उन श्रेणियोंके प्रमाणका ज्ञान कराने के लिये सूच्यंगुलके द्वितीय वर्गमूलको उसीके तृतीय वर्गमूलसे गुणा करने पर जो लब्ध आवे उतनी उन श्रेणियोंकी विष्कंभसूची कही। 'गुणिदेण' यह पद प्रथमा विभक्तिरूप जानना चाहिये, जिससे यह तात्पर्य हुआ कि सूच्यंगुलके द्वितीय वर्गमूलको तृतीय धर्गमूलसे गुणित करने पर जो लब्ध आवे उतनी सौधर्म और ऐशान कल्पवासी मिथ्यादृष्टि देवोंकी विष्कंभसूची होती है । अथवा, सूच्यंगुलके तृतीय वर्गमूलसे प्रथम वर्गमूलके भाजित करने पर सौधर्म और ऐशान कल्पवासी देवोंकी मिथ्यादृष्टि विष्भसूची होती है। ऊपर जिसप्रकार नारक मिथ्यादृष्टि विष्कंभसूचीके खंडित आदिकका कथन कर आये हैं उसीप्रकार इस विष्कंभ. सूचीके खंडित आदिकका कथन करना चाहिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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