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छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, २, १७२.
भवियाणुवादेण भवसिद्धिएसु मिच्छाइट्टि पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति ओघं ॥ १७२ ॥
४७२ ]
एदस्य सुत्तस्स अत्थो सुगमा । णवरि अभवसिद्धिय सहिद सिद्ध-तेरसगुणपडिवण्णरासि भवसिद्धियमिच्छाइट्ठिभजिदं तेसिं वग्गं च सव्वजीवरासिस्सुवरि पक्खित्ते भवसिद्धियमिच्छाविरासी होदि ।
अभवसिद्धिया दव्वपमाणेण केवडिया, अनंता ॥ १७३ ॥
एत्थ अनंतवणं संखेज्जासंखेज्जपडिसेहफलं । एत्थ कालपमाणं सुत्ते किमिदण बुतं ? ण एस दोसो, अभवसिद्धियाणं वयाभावा । वयाभावो वि तेसिं मोक्खाभावादो अवगमदे |
खेत्तपमाणं किमिदि ण वृत्तं इदि चे ण, अपरिष्फुडस्स अत्थस्स फुडीकरणटुं
भव्य मार्गणा के अनुवाद से भव्यसिद्धिकोंमें मिध्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवल गुणस्थानतक प्रत्येक गुणस्थानमें जीव ओघप्ररूपणा के समान हैं ॥ १७२ ॥
इस सूत्र का अर्थ सुगम है । इतना विशेष है कि अभव्यसिद्धिक जीवराशिसहित सिद्धराशि और तेरह गुणस्थानप्रतिपन्न जीवराशिको तथा उक्त राशियों के वर्ग में भव्यसिद्धिक मिथ्यादृष्टि राशिका भाग देनेसे जो लब्ध आवे उसे सर्व जीवराशिमें मिला देने पर भष्यसिद्धिक मिथ्यादृष्टि ध्रुवराशि होती है ।
अभव्यसिद्धिक जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? अनन्त हैं ॥ १७३ ॥ यहां सूत्रमें अनन्त यह वचन संख्यात और असंख्यातके प्रतिषेध के लिये दिया है । शंका- यहां भव्य मार्गणा में अभव्योंका प्रमाण कहते समय सूत्रमें कालकी अपेक्षा प्रमाण क्यों नहीं कहा ?
समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, अभव्यसिद्धों का व्यय नहीं होता। उनका व्यय नहीं होता है यह कथन उनको मोक्षकी प्राप्ति नहीं होती है इससे जाना जाता है ।
शंका - अभव्यों का प्रमाण क्षेत्रप्रमाणकी अपेक्षा क्यों नहीं कहा ?
समाधान नहीं, क्योंकि, जो अर्थ अपरिस्फुट हो उसके स्फुट करनेके लिये
१ भव्यानुवादेन भव्येषु मिथ्यादृष्ट्यादयोऽयोग के बल्यन्ताः सामान्योक्तसंख्याः । स. सि. १, ८. तेण विहिणो सव्वो संसारी भव्त्ररासिस्स ॥ गो. जी. ५६०..
२ अभव्या अनन्ताः । स. सि. १, ८. अवरो जुत्ताणंतो अमव्त्ररासिस्स होदि परिमाणं ॥ गो. जी. ५६०. ३ प्रतिषु ' मयाभावादि ' इति पाठः ।
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