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(३८)
परिशिष्ट
ड - मूडबिद्रीकी ताड़पत्रीय प्रतियोंके वे पाठ जो पाठ या अर्थकी दृष्टिसे अशुद्ध प्रतीत हुए ।
नोट - जिन पाठोंके संबंध में कुछ विशेष कहना है वह नीचे पाद टिप्पण में देखिये । जो पद पाठ या अर्थकी दृष्टिसे स्पष्टतः अशुद्ध प्रतीत हुए उनके ऊपर कोई टिप्पण देने की आवश्यकता प्रतीत नहीं हुई ।
पृष्ठ
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८
१३
१६
२१
३१
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५३
५८
६०
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८३
पंक्ति मुद्रित पाठ
३ अरिहंताणं
१ उजुसुद्द ४ णियत
८ तस्यायुक्तं १ अणुवजुत्तो ५ विपर्यस्यतोः
४ अरिहंता
५
५ तत्कणादप्युप
११ अम्बुच्छिष्णं
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३ व्याकुलता
६ दिव्वज्झणी
५ पादमूलमुवगया
१० जीवट्ठाणे
८ जीवट्ठाणं
भाग १
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मूडबिद्रीकापाठ
अरहंताणं
उजुसुद
च्चियत (?) तस्याप्युक्तं
अणवजुत्तो
विपर्यस्थयोः
अरिहंतः
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तत्करणादप्युपअव्वच्छिण्णं
व्याकुल दिव्वज्झाणे
८ ३ पृष्ठ ४२ पर जो णमोकार सूत्रका अर्थ प्रारंभ किया गया है वहीं ' अरिहंताणं '
पाठ ही ग्रहण
किया गया है और मूडबिद्री प्रतियोंसे भी वहाँ कोई पाठान्तर प्राप्त नहीं हुआ । उसके अर्थ करने में भी धवलाकारने
“
अरिर्मोहः ' इत्यादि पदशि ग्रहण किया है । इससे अनुमान होता है कि धवलाकार के सन्मुख ' अरिहंताणं ' पाठ ही रहा है। अरिहंताणं पद ग्रहण करने से प्राकृत नियमानुसार उसका ' अरिहंता ' व अर्हत' दोनों अर्थ हो सकते हैं (देखो हैम प्राकृत व्याकरण ८, २, १११ ) किन्तु अरहंत से केवल अर्हत् अर्थ ही निकल सकता है अरिहंता नहीं ।
3
पादमूलमवगया जीवाण
जीवा
३१, ५ ' विपर्यस्थयोः पाठ तो व्याकरणसे शुद्ध है ही नहीं, किन्तु यदि उसके स्थान पर विपर्ययस्थयोः ' पाठ हो तो माझ हो सकता है, क्योंकि उसका वही अर्थ निकल आता है जो प्रकृतोपयोगी है । ४४, ४-५ इसका विचार हम पहले ही कर चुके हैं। देखो षट्खंडागम, भाग १, भूमिका पृ. १२ व ८७
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