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________________ ११२] छक्खंडागमे जीवाणं [१, २, १७. जगसेढीए जगपदरे भागे हिदे एगसेढी आगच्छदि । जगसेढीदुभागेण जगपदरे भागे हिदे दोणि सेढीओ आगच्छंति । जगसेढितिभागेण जगपदरे भागे हिदे तिणि सेढीओ आगच्छति । एवमेगादि-एगुत्तरकमेण सेढीए भागहारो वड्वावेयव्यो जाव णेरइयविक्खभसूचिमेत्तं पत्तो त्ति । पुणो ताए विक्खंभसूचीए सेढिमोवट्टिय लद्धेण जगपदरे भागे हिदे विक्खंभसूचीमेत्तसेढीओ आगच्छति । एवमण्णत्थ वि विक्खंभसूईदो अवहारकालो साधेयव्यो। एदेण भागहारेण सेढीए उवरि खंडिदादिवियप्पा वत्तव्या । तत्थ ताव वग्गहाणे पमाण-कारण-णिरुत्ति-वियप्पेहि अवहारकालं वत्तइस्सामो। तस्स पमाणं केत्तियं ? सेढीए असंखेज्जदिभागो असंखेज्जाणि सेढिपढमवग्गमूलाणि । पमाणं गदं । केण कारणेण ? सेढिपढमवग्गमूलेण सेढिम्हि भागे हिदे सेढिपढमवग्गमूलो आग जगश्रेणीसे जगप्रतरके भाजित करने पर एक जगश्रेणीका प्रमाण आता है (४२९४९६७२९६: ६५५३६ = ६५५३६)। जगश्रेणीके द्वितीय भागका जगप्रतरमें भाग देने पर दो जगणियां लब्ध आती हैं (४२९४९६७२९६ : ३२७६८ = १३१०७२)। जगश्रेणीके तृतीय भागसे जगप्रतरके भाजित करने पर तीन जगणियां आती हैं (४२९४९६७२९६ २१८४५१ = १९६६०८)। इसप्रकार भागहार बढ़ाते हुए जबतक वह नारक विष्कंभसूचीके प्रमाणको प्राप्त होवे तबतक उसे बढ़ाते जाना चाहिये। अनन्तर उस विष्भसूचीसे जगश्रेणीको अपवर्तित करके जो लब्ध आवे उससे जगप्रतरके भाजित करने पर जितना विष्कभसूचीका प्रमाण है उतनी जगश्रेणियां लब्ध आती हैं। इसीप्रकार अन्यत्र भी विष्कंभसूचीसे अवहारकाल साध लेना चाहिये। उदाहरण-जगश्रेणी ६५५३६, जगप्रतर ४२९४९६७२९६, ६५५३६२%D३२७६८, ४२९४९६७२९६:३२७६८% १३१०७२. नारक मिथ्यादृष्टि जीवराशि. अब इस भागहारका आश्रय करके जगश्रेणीके ऊपर खण्डित आदि विकल्पका कथन करना चाहिये। उनमेंसे पहले वर्गस्थानमें प्रमाण, कारण, निरुक्ति और विकल्पके द्वारा अवहारकालका प्रमाण बतलाते हैं शंका-सामान्य नारक मिथ्यादृष्टि जीवराशिके लानेके लिये जो भागहार कहा है उसका प्रमाण कितना है? समाधान-उक्त भागहारका प्रमाण जगश्रेणीके असंख्यातवें भाग है, जो जंगश्रेणीके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण है । इसप्रकार प्रमाणका वर्णन समाप्त हुआ। उदाहरण-अवहारकाल ३२७६८, जगश्रेणीका प्रथम वर्गमूल २५६, ३२७६८ : २५६ = १२८ (यहां १२८ को असंख्यात मान कर उतनेवार प्रथम वर्गमूल २५६ का जोड़ ३२७६८ होता है) शंका--जगश्रेणीके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण अवहारकाल किस कारणसे है ? समाधान-क्योंकि, जगश्रेणीके प्रथम वर्गमलसे जगश्रेणीके भाजित करने पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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