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________________ १, २, १७.] दव्वपमाणाणुगमे णिरयगदिपमाणपरूवणं [ १४३ च्छदि । सेढिविदियवग्गमूलेण सेढिम्हि भागे हिदे विदियवग्गमूलस्स जत्तियाणि रूवाणि तत्तियाणि सेढिपढमवग्गमूलाणि आगच्छति । सेढितदियवग्गमूलेण सेढिम्हि भागे हिदे सेढिविदिय-तदियवग्गमूलाणं अण्णोण्णभागे कदे तत्थ जत्तियाणि रूवाणि तत्तियाणि सेढिपढमवग्गमूलाणि आगच्छति । अणेण विहाणेण पलिदोवमवग्गसलागाणं असंखेजदिभागमेत्तवग्गहाणाणि हेट्ठा ओसरिऊण घणंगुलविदियवग्गमूलेण सेदिम्हि भागे हिदे असंखेज्जाणि सेढिपढमवग्गमूलाणि आगच्छति त्ति ण संदेहं कायव्यं । कारणं गदं । णिरुत्तिं वत्तइस्सामो । घणंगुलविदियवग्गमूलेण सेढिपढमवग्गमूले भागे हिदे तत्थ जत्तियाणि रूवाणि तत्तियाणि पढमवग्गमूलाणि । अधवा तेणेव भागहारेण सेढिविदियवग्गमूले भागे हिदे तत्थागदेण तम्हि चेव गुणिदे तत्थ जत्तियाणि रूवाणि तत्तियाणि सेढिपढमवग्गमूलाणि । अधवा तेणेव भागहारेण सेढितदियवग्गमूले भागे हिदे तत्थागदेण तं चेव गुणेऊण तदो तेण विदियवग्गमूले गुणिदे तत्थ जत्तियाणि जगश्रेणीका प्रथम वर्गमूल आता है (६५५३६ २५६ = २५६)। जगश्रेणीके द्वितीय वर्गमूलसे जगश्रेणीके भाजित करने पर द्वितीय वर्गमूलका जितना प्रमाण होता है उतने जगश्रेणीके प्रथम वर्गमूल लब्ध आते हैं (६५५३६ : १६ = ४०९६ = १६ x २५६)। जगश्रेणीके तृतीय वर्गमूलसे जगश्रेणीके भाजित करने पर, श्रेणीके द्वितीय और तृतीय वर्गमूलके परस्पर गुणा करने पर वहां जितनी संख्या उत्पन्न हो उतने प्रथम वर्गमूल लब्ध आते हैं (६५५३६ ४ = १६३८४ = १६४४४ २५६)। इसी विधिसे पल्पोपमकी वर्गशलाकाओंके असं. ख्यातवें भागमात्र वर्गस्थान नीचे जाकर घनांगुलके द्वितीय वर्गमूलसे जगश्रेणीके भाजित करने पर जगश्रेणीके असंख्यात प्रथम वर्गमूल लब्ध आते हैं, इसमें संदेह नहीं करना चाहिये । इसप्रकार कारणका वर्णन समाप्त हुआ । उदाहरण-घनांगुलका द्वितीय वर्गमूल २, ६५५३६ २= ३२७६८ अव. अब निरुक्तिका कथन करते हैं- घनांगुलके द्वितीय वर्गमूलसे जगश्रेणीके प्रथम वर्गमूलके भाजित करने पर वहां जितना प्रमाण लब्ध आवे उतने प्रथम वर्गमूल सामान्य नारक मिथ्यादृष्टि अवहारकालमें होते हैं। उदाहरण-२५६ २१२८ (इतने प्रथम वर्गमूल अवहारकालमें होते हैं)। *अथवा, उसी घनांगुलके द्वितीय वर्गमूलरूप भागहारसे जगश्रेणीके द्वितीय वर्गमूलके भाजित करने पर वहां जो प्रमाण लब्ध आवे उससे उसी द्वितीय वर्गमूलके गुणित कर देने पर वहां जो प्रमाण लब्ध आधे उतने जगश्रेणीके प्रथम वर्गमूल सामान्य अवहारकालमें लब्ध आते हैं। उदाहरण-१६:२=८; १६४८ = १२८. अथवा, उसी घनांगुलके द्वितीय वर्गमूलरूप भागहारसे जगश्रेणीके तृतीय वर्गमूलके भाजित करने पर वहां जितना प्रमाण आवे उससे उसी तृतीय वर्गमूलको गुणित करके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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