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________________ १४४] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, २, १७. रूवाणि तत्तियाणि सेढिपढमवग्गमूलाणि । अणेण विहाणेण असंखेज्जाणि वग्गट्ठाणाणि हेहा ओसरिऊण घणंगुलविदियवग्गमूलेण तस्सुवरिमवग्गमवहारिय लद्धेण घणंगुलपढमवग्गमूलं गुणिय तेण च गुणियरासिणा घणंगुलो गुणेयव्यो । एदेण कमेण उवरि उवरि अवहिदवग्गहाणाणि सेढिविदियवग्गमूलंताणि सव्वाणि गुगेयवाणि । तत्थ जत्तियाणि रूवाणि तत्तियाणि पढमवग्गमूलाणि हवंति । एवं णिरुत्ती गदा । वियप्पो दुविहो, हेट्ठिमवियप्पो उवरिमवियप्पो चेदि । वेरूवे हेट्ठिमवियप्पो णत्थि, जगसेढिसमाणवेरूववग्गस्स पढमवग्गमूलं केण वि भागहारेण अवहिरिजंते अवहारकालस्स अणुप्पत्तीदो। ण च जगसेढिसमाणवेरूववग्गं अस्सिऊण अवहारकालुप्पत्ती वोत्तुं सक्किन्जदे, हेट्ठिम-उवरिमवियप्पेसु णिरुद्धेसु मज्झिमवियप्पस्स असंभवादो । अट्ठरूवे हेट्ठिमवियप्पो णत्थि, विहज्जमाणसे ढिपढमवग्गमूलादो अवहारकालस्स ...... तदनन्तर उस लध्धसे द्वितीय वर्गमूलके गुणित करने पर वहां जितना प्रमाण आवे उतने जगश्रेणीके प्रथम वर्गमूल सामान्य अवहारकालमें लब्ध आते हैं। उदाहरण-४२ =२; ४४२ = ८; १६४८% १२८. इसी विधिसे असंख्यात वर्गस्थान नीचे जाकर घनांगुलके द्वितीय वर्गमूलसे उसके उपरिम वर्गको भाजित करके जो लब्ध आवे उससे घनांगुलके प्रथम वर्गमूलको गुणित करके जो गुणित राशि लब्ध आवे उससे घनांगुलको गुणित करना चाहिये । इसी क्रमसे जगश्रेणीके द्वितीय वर्गमूल पर्यन्त ऊपर ऊपर अवस्थित संपूर्ण वर्गस्थानोंको गुणित करना चाहिये । इसप्रकार गुणा करनेसे वहां जितना प्रमाण लब्ध आवे उतने प्रथम वर्गमूल सामान्य मिथ्यादृष्टि नारक अवहारकालमें होते हैं । इसप्रकार निरुक्तिका वर्णन समाप्त हुआ। उदाहरण-४२= २, ४४२ = ८; १६४८ = १२८. विशेषार्थ-यहां दृष्टांतके स्पष्ट करनेके लिये जो अंकसंदृष्टि ली है उसमें अगश्रेणीका द्वितीय वर्गमूल और घनांगुलका प्रमाण एक पड़ जाता है जो १६ है। अतः निरुक्तिका कथन करते हुए जगश्रेणीके द्वितीय वर्गमूलतक ऊपर ऊपर वर्गस्थानोंका उत्तरोत्तर गुणा करते जाना चाहिये । इस कथनके अनुसार अंकसंदृष्टिमें वहीं तक (१६ तक) गुणा बढ़ानेसे वह संख्या लब्ध आ जाती है जितने जगश्रेणीके प्रथम वर्गमूल सामान्य मिथ्यादृष्टि नारक अवहारकालमें पाये जाते हैं। विकल्प दो प्रकारका है, अधस्तन विकल्प और उपरिम विकल्प । उनमेंसे यहां प्रकृतमें द्विरूपधारामें अधस्तन विकल्प संभव नहीं है, क्योंकि, जगश्रेणीके समान द्विरूप वर्गके प्रथम वर्गमूलको किसी भी भागहारसे अपहृत करने पर अवहारकाल नहीं उत्पन्न हो सकता है। यदि जगश्रेणीके समान द्विरूपवर्गका आश्रय करके अवहारकालकी उत्पत्ति कही जावे सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, विकल्पके अधस्तन और उपरिम विकल्पसे निरुद्ध हो जाने पर मभ्यम विकल्प नहीं बन सकता है। यहां अष्टरूपमें भी अधस्तन विकल्प नहीं पाया जाता है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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