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________________ १, २, १७.] दव्वपमाणाणुगमे णिरयगदिपमाणपरूवणं [१४५ बहुत्तुवलंभादो । अहवा अवहारकालागमणणिमित्तभागहारेण णिरुद्धरासीदो हेट्ठा जं वा तं वा वग्गमूलमोवट्टिय णिरुद्धरासिस्स हेट्टिमवग्गमूलाणि एकवारं गुणिदे जत्थ इच्छिदरासी उप्पज्जदि तत्थ वि हेट्ठिमवियप्पो अत्थि त्ति भणताणमभिप्पाएण अट्ठरूवे हेट्ठिमवियप्पं वत्तइस्सामो । घणंगुलविदियवग्गमूलेण सेढिपढमवग्गमूले भागे हिदे तत्थागदलद्धेण सेढिपढमवग्गमूले गुणिदे अवहारकालो होदि । अहवा तेणेव भागहारेण सेढिविदियवग्गमूलमवहारिय तत्थागदेण लद्धेण तं चेव विदियवग्गमूलं गुणेऊण तेण पढमवग्गमूलं गुणिदे अवहारकालो होदि । अहवा घणंगुलविदियवग्गमूलेण सेढितदियवग्गमूलमवहरिय तत्थ लरेण तं चेव तदियवग्गमूलं गुणेऊण तेण विदियवग्गमूलं गुणिय तेण सेढिपढमवग्गमूलं गुणिदे अवहारकालो होदि । अणेण विहाणेण पलिदोवमवग्गसलागाणमसंखेजदिभागमेत्तवग्गहाणाणं पुध णिरुंभणं करिय अवहारगुणणकिरियं काऊण अवहारकालो क्योंकि, विभज्यमान राशि जगश्रेणीके प्रथम वर्गमूलसे अवहारकालका प्रमाण बहुत अधिक पाया जाता है । अथवा, अवहारकालके लानेके लिये निमित्तभूत भागहारसे निरुद्धराशि जगश्रेणीसे नीचे किसी भी वर्गमूलको अपवर्तित करके जो लब्ध आवे उससे निरुद्धराशिके अधस्तन वर्गमूलोंको एकवार गुणित करने पर जहां पर इच्छित राशि उत्पन्न होती है वहां पर भी अधस्तन विकल्प पाया जाता है, इसप्रकार प्रतिपादन करनेवाले आचार्योंके अभिप्रायसे अष्टरूपमें अधस्तन विकल्पको बतलाते हैं घनांगुलके द्वितीय वर्गमूलसे जगश्रेणीके प्रथम वर्गमूलके भाजित करने पर वहां जो प्रमाण लब्ध आवे उससे जगश्रेणीके प्रथम वर्गमूलके गुणित कर देने पर अघहारकालका प्रमाण होता है। उदाहरण-२५६ २= १२८, २५६४ १२८ = ३२७६८ अव. अथवा, उसी भागहारसे अर्थात् घनांगुलके द्वितीय वर्गमूलसे जगश्रेणीके द्वितीय वर्गमूलको भाजित करके वहां जो लब्ध आवे उससे उसी जगश्रेणीके द्वितीय वर्गमूलको गुणित करके पुनः उस गुणित राशिसे जगश्रेणीके प्रथम वर्गमूलके गुणित करने पर अवहारकालका प्रमाण आता है। उदाहरण-१६ २= ८,१६४८ = १२८, २५६४ १२८ % ३२७६८ अव. अथवा, घनांगुलके द्वितीय वर्गमूलसे जगश्रेणीके तृतीय वर्गमूलको भाजित करके वहां जो लब्ध आवे उससे उसी तृतीय वर्गमूलको गुणित करके पुनः उस गुणित राशिसे जगश्रेणीके द्वितीय वर्गमूलको गुणित करके जो लब्ध आवे उससे जगश्रेणीके प्रथम वर्गमूलके गुणित करने पर अवहारकालका प्रमाण आता है। उदाहरण-४२२, ४४२ = ८; १६४८ = १२८, २५६ ४ १२८ = ३२७६८ अव. इसी विधिसे पल्योपमकी वर्गशलकाओंके असंख्यातवें भागमात्र वर्गस्थानोंको पृथक्. रूपसे रोककर और घनांगुलके द्वितीय वर्गमूलप्रमाण भागहारसे अंतिम आदि स्थानोंको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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