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________________ २८६ ] सव्वट्टसिद्धिविमाणवासियदेवा दव्वपमाणेण संखेज्जा ॥ ७३ ॥ छक्खंडागमे जीवद्वाणं मणुसिणीरासीदो तिउणमेत्ता हवंति । भागाभागं वत्तइस्सामा । सव्वदेवरासिमसंखेज्जखंडे कए तत्थ बहुखंडा जोइसियदेवमिच्छाइट्ठी होंति । सेसमसंखेज्जखंडे कए तत्थ बहुखंडा वाणवेंतरमिच्छाइट्ठी होंति । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुभागा सोहम्मीसाणमिच्छाइट्ठी होंति । एवं जाव सदार - सहस्सारमिच्छाइट्टि ति । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुभागा सोहम्मी साणअसंजदसम्माइट्ठी होंति । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुभागा सम्मामिच्छाइट्टिण होंति । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुभागा सासणसम्माइट्टिणो होंति । एवं सणक्कुमार- माहिंद पहुडि जा सहस्सारो ति यव्त्रं । तदो जोइसिय- वाणवेंतर- भवणवासिएत्ति यव्वं । पुणो सेसस्स संखेज्जखंडे कए बहुखंडा आणद-पाणदअसंजदसम्माइट्टिणी होंति । सेसस्स संखेजखंडे कए बहुखंडा आरणच्चुदअसंजदसम्माइट्टिणो होंति । एवं यव्वं Jain Education International [ १, २, ७३. केवडिया, सर्वाधसिद्धि विमानवासी देव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? संख्यात हैं ॥ ७३ ॥ सर्वार्थसिद्धि विमानवासी देव मनुष्यनियों के प्रमाणसे तिगुणे हैं । आगे भागाभागको बतलाते हैं- सर्व देवराशि के असंख्यात खंड करने पर उनमें से बहु भागप्रमाण ज्योतिषी मिध्यादृष्टि देव है । शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर उनमें से बहुभाग वाणव्यन्तर मिध्यादृष्टि देव हैं। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर उनमें से बहुभागप्रमाण सौधर्म और ऐशान कल्पके मिथ्यादृष्टि देव हैं । इसीप्रकार शतार और सहस्रार कल्पके मिध्यादृष्टि देवों तक ले जाना चाहिये । शतार और सहस्रारके मिथ्यादृष्टि प्रमाणके अनन्तर जो एक भाग शेष रहे उसके असंख्यात खंड करने पर उनमें से बहुभागप्रमाण धर्म और ऐशान कल्पके असंयतसम्यग्दृष्टि देव हैं। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर उनमें से बहुभागप्रमाण वहींके सम्यग्मिथ्यादृष्टि देव हैं। शेष एक भाग के असंख्यात खंड करने पर उनमें से बहुभागप्रमाण वहींके सासादनसम्यग्दष्टि देव हैं। इसीप्रकार सानत्कुमार और माहेन्द्र कल्पसे लेकर सहस्रार कल्पतक ले जाना चाहिये । सहस्रार कल्पसे आगे ज्योतिषी, वाणव्यन्तर और भवनवासी देवों तक यही क्रम ले जाना चाहिये । पुनः भवनवासी सासादन सम्यग्दृष्टियों के प्रमाणके अनन्तर जो एक भाग शेष रहे उसके संख्यात खंड करने पर बहुभागप्रमाण आनत और प्राणतके असंयतसम्यग्दृष्टि देव हैं। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर उनमें से बहुभागप्रमाण आरण और अच्युतके असंयतसम्यग्दृष्टि देव हैं। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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