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१, २, ७२.] दव्वपमाणाणुगमे देवगदिपमाणपरूवणं
[२८५ दादओ जाणिय वत्तव्या। सव्वदेवगुणपडिवण्णाणं ओघमंगो इदि भणिय आणदादिउपरिमगुणपडिवण्णाणं पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो । एदेहि पलिदोवममवहिरदि अंतोमुहुत्तेण' इदि विसेसिय किमटुं वुच्चदे ? एवं भणंतस्स अहिप्पाओ परूविज्जदे । तं जहा- ओघभंगो इच्चेदेण आणद्धत्तादो सुत्तमिदमणस्थयं । अणत्थयं च जाणावयं होदि । किमदेण जाणाविजदि ? सोहम्मअसंजदसम्माइडिअवहारकालो आवलियाए असंखेजदिभागो। तत्थतणखइयसम्माइट्ठीणमवहारकालो संखेज्जावलियमेत्तो। एदे दो वि अवहारकाले मोत्तूण अवसेसगुणपडिवण्णाणं सव्वे अवहारकाला असंखेज्जावलिमेत्ता विउलत्तवाइणो अंतोमुहुत्तसदेण वुचंति त्ति जाणाविदं, तदो णाणत्थयमिदं सुत्तं ।
ग्रैधेयकके सासादनसम्यग्दृष्टि अवहारकालतक ले जाना चाहिये। इन अवहार कालोंके द्वारा खंडित आदिकका कथन जान कर करना चाहिये ।
सर्व गुणस्थानप्रतिपन्न देवोंका प्रमाण सामान्य प्ररूपणाके समान है ऐसा कथन करके 'गुणस्थानप्रतिपन्न इन आनत आदि देवोंके द्वारा अन्तर्मुहूर्त कालसे पल्योपम अपहत होता है' इतनेसे विशेषित करके गुणस्थानप्रतिपन्न आनतादि देवोंका प्रमाण पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण किसलिये कहा। आगे ऐसा कथन करनेवालेके अभिप्रायका प्ररूपण करते हैं। वह इसप्रकार है
सर्व गुणस्थानप्रतिपन्न देवोंका प्रमाण 'सामान्य प्ररूपणाके समान है' इतनेमात्रसे संबन्धित होने के कारण यह सूत्र अनर्थक है, फिर भी जो सूत्र अनर्थक होता है वह किसी स्वतन्त्र नियमका ज्ञापक होता है।
शंका-इससे क्या ज्ञापन होता है ?
समाधान-सौधर्म असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल आवलीके असंख्यातवें भाग है। वहींके क्षायिक सम्यग्दृष्टियोंका अपहारकाल संख्यात आवलीमात्र है। इन दो अवहार. कालोंको छोड़कर शेष गुणस्थानप्रतिपन्नोंके संपूर्ण अवदारकाल असंख्यात आवलीमात्र हैं, अवहारकालकी विपुलताको माननेवाले आचार्य अन्तर्मुहूर्त शब्दसे ऐसा कहते हैं, यह इस सूत्रसे झापित होता है, इसलिये यह सूत्र अनर्थक नहीं है।
साणहारमसंखेण य संखरूवसंगुणिदे । उवरि असंजद-मिस्सय-सासणसम्माण अवहारा॥ सोहम्मादासारं जोहसि-वण. भवण तिरिय पुढवीसु । अविरद-मिस्से संखं संखाखगुण सासणे देसे ॥ चरमधरासाणहरा आणदसम्माण आरणप्पहुदि। अंतिमगेवेझंत सम्माणमसंखसंखगुणहारा ॥ तत्तो ताणुत्ताणं बामाणमणुहिसाण विजयादि । सम्माणं संखगुणी आणदामिस्से असंखगुणो ॥ तत्तो संखेज्जगुणो सासणसम्माण होदि संखगुणो। उत्तट्ठाणे कमसो पणछस्सत्तश्चदुरसंदिट्ठी॥ गो. जी. ६६५-६७०.
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