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________________ १.२, २.] दव्वपमाणाणुगमे मिच्छाइडिपमाणपरूवणं [२१ एसो सव्यजीवरासीदो किंचूणमिच्छादिद्विरासीदो य अणंतगुणहीणो त्ति कधं जाणिजदि? बुच्चदे- जहण्णपरित्ताणंतस्स अद्धच्छेदणाणमुवरि तस्सेव वग्गसलागाओ रूवाहियाओ पक्खित्त जहण्ण-अणंताणंतस्स वग्गसलागा भवंति । जहण्णपरित्ताणतस्स अद्धच्छेदणाहि दुगुणिदाहि जहण्णपरित्ताणते गुणिदे जहण्णमणंताणंतस्स अद्धछेदणयसलागा हवंति । एदाओ च जहण्णपरित्ताणंतादो असंखेज्जगुणाओ तस्सेव उवरिमवग्गादो असंखेज्जगुणहीणाओ । एदाणमुवरि जहण्ण-अणंताणंतस्स वग्गसलागाओ जहण्णपरित्ताणंतस्स अद्धच्छेदणाहिंतो विसेसाहियाओ पक्खित्ते पढमवारवग्गिदसंवग्गिदरासिस्स वग्गसलागा भवंति । जहण्ण-अणंताणंतस्स अद्धछेदणाओ जहण्ण-अणंताणतेण गुणिदे पढमवारवग्गिदसंबग्गिदरासिस्स अद्धच्छेदणयसलागा भवंति । एदाओ जहण्ण-अणंताणंतादो (यदि हम २५६ को २५६ से इतने ही वार गुणा करें तो जो संख्या उत्पन्न होगी वह ६१७ अंकवाली होगी। इसप्रकार इकाईरुप छोटीसी २ संख्याको तीनवार वर्गितसंवर्गित करने पर ६१७ अंकवाली महासंख्या उत्पन्न होती है । इस परसे किसी भी मूलराशिसे उत्पन्न हुई त्रिवार वर्गितसंवर्गित राशिके विस्तारका अनुमान लगाया जा सकता है।) शंका- तीनवार वर्गितसंवर्गित करनेसे उत्पन्न हुई यह महाराशि संपूर्ण जीवराशिसे और संपूर्णजीवराशिसे कुछ कम (द्वितीयादि शेष तेरह गुणस्थानसंबन्धी राशि और सिद्धराशि प्रमाण कम) मिथ्यादृष्टि जीवराशिसे अनन्तगुणी हीन है, यह कैसे जाना जाता है ? समाधान- जघन्य परीतानन्तके अर्धच्छेदोंमें उसीकी अर्थात् जघन्य परीतानन्तकी एक अधिक वर्गशलाकाएं मिला देने पर जघन्य अनन्तानन्तकी वर्गशलाकाएं उत्पन्न होती हैं। तथा जघन्य परीतानन्तके द्विगुणित अर्धच्छेदोंसे जघन्य परीतानन्तके गुणित करने पर जघन्य अनन्तानातकी अर्धच्छेदशलाकाएं होती हैं। ये जघन्य अनन्तानन्तकी अर्धच्छेदशलाकाएं जघन्य परीतानन्तसे असंख्यातगुणी हैं और उसीके अर्थात् जघन्य परीतानन्तके उपरिम वर्गसे असंख्यातगुणी हीन हैं। इन जघन्य अनन्तानन्तकी अर्धच्छेद शलाकाओंमें, जो जघन्य परीतानन्तकी अर्धच्छेदशलाकाओंसे अधिक हैं,ऐसी जघन्य अनन्तानन्तकी वर्गशलाकाएं मिला देने पर प्रथमवार वर्गितसंवर्गित राशिकी वर्गशलाएं होती हैं। जघन्य अनन्तानन्तके अर्धच्छेदोंको जघन्य अनन्तानन्तसे गुणित करने पर प्रथमवार वर्गितसंवर्गित राशिकी अर्धच्छेदशलाकाएं तब्बग्गे पुण जाय ताणतं लहु तं च तिख्खुत्तो । वग्गसु तह न तं होइ णतखेवे खिवसु छ इमे ॥ क. ग्रं. ५, ८४. १ वग्गिदवारा वग्गसलागा रासिस्स अद्धछेदस्स । अद्धिदवारा वा खलु दलवारा होंति अद्धछिदी ॥ त्रि. सा. ७६. २ विरलिज्जमाणरासिं दिण्णस्सद्धन्छिदीहिं संगुणिदे । अद्धच्छेदा होंति हु सव्वत्थुप्पण्णरासिस्स ॥ वि. सा. १०७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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