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________________ षट्खंडागमकी प्रस्तावना पृष्ठ ३३२ । २० शंका-सूत्र नं. ९३ में 'सम्मामिच्छाइटि-असंजदसम्माइट्ठि-संजदासंजदट्ठाणे णियमा पजत्तियाओ' पर आपने फुटनोट लगाकर "अत्र ‘संजद ' इति पाठशेषः प्रतिभाति" ऐसा लिखा है। सो लिखना कि यह आपने कहांसे लिखा है, और क्या मनुष्यनीके छठा गुणस्थान होता है ? आगे पृ० ३३३ पर शंका-समाधानमें लिखा है कि स्त्रियोंके संयतासंयत गुणस्थान होता है, सो पहलेसे विरोध आता है ! __ (नानकचंदजी, पत्र १-४-४०) ____अन 'संनद' इति पाठ शेषः प्रतिभाति " यह सम्पादक महोदयोंका संशोधन है । ऐसे संशोधनको मूलसूत्रका अर्थ करते समय नहीं जोड़ना उचित प्रतीत होता है । (जैनगजट, ३ जुलाई १९४०) समाधान-उक्त पाद-टिप्पण देनेके निम्न कारण है:-- (१) आलापाधिकारमें मनुष्यस्त्रियोंके आलाप बतलाते समय सभी (चौदह ) गुणस्थानोंमें उनके आलाप बतलाये हैं। (२) द्रव्यप्रमाणानुगममें मनुष्यस्त्रियोंका प्रमाण कहते समय चौदहों गुणस्थानोंकी अपेक्षा उनका प्रमाण कहा है । यथा मणसिणीसु मिच्छाइट्टी दवपमाणेण केवडिया, कोडाकोडाकोडीए उवरि कोडाकोशकोडाकोडीए हेट्टदो, छह वग्गाणमुवरि सत्तण्हं वग्गाणं हेढदो ॥ ४८ ॥ पृ. २६०. मणुसिणीसु सासणसम्माइटिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि चि दव्वपमाणेण केवडिया, संखेज्जा ॥ ४९ ॥ पृ. २६१. (३) आगममें मनुष्यके सामान्य, पर्याप्त, योनिमती और अपर्याप्त, ये चार भेद किये हैं। वहां योनिमती मनुष्यसे भावसे स्त्रीवेदी मनुष्योंका ही प्रहण किया है । षट्खंडागममें उसी भेदके लिये मणुसिणी शब्द आया है, और उन्हीं भेदोंके क्रमसे वर्णन भी है। (४) इससे ऊपरके सूत्रमें मनुष्यनियोंको मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें जो पर्याप्त और अपर्याप्त बतलाकर इसी सूत्रमें जो शेष गुणस्थानोंमें केवल पर्याप्त ही बतलाया है, इससे भी भाववेदकी ही मुख्यता प्रतीत होती है, क्योंकि गुणस्थानोंमें पर्याप्तत्व और अपर्याप्तत्वकी व्यवस्था भाववेदकी अपेक्षासे ही की गई है। (५) यदि यहाँ उक्त पादटिप्पणको ग्रहण न किया जाये तो धवलाकारने इसी सूत्रकी व्याख्यामें जो यह शंका उठाई है कि 'अस्मादेवार्षाद् द्रव्यस्त्रीणां निवृत्तिः सियेत् ' अर्थात् , तो इसी भागमसे द्रव्यस्त्रियोंका मुक्ति जाना भी सिद्ध हो जायगा, ऐसी शंकाके उत्पन्न होनेका कोई कारण नहीं रह जाता है। ___ इन उपर्युक्त हेतुओंसे यही प्रतीत होता है कि यहां मनुष्यनियोंका भाववेदकी अपेक्षाही प्रतिपादन किया गया है, द्रव्यवेदकी अपेक्षासे नहीं। और इसीलिये उक्त ९३ सूत्रपर 'अत्र • संजद ' इति पाठशेषः प्रतिभाति' यह पादटिप्पण जोडा गया है।) २१ शंका-९३ सूत्रके नीचे जो शंका दी है कि हुण्डावसर्पिणी कालसम्बन्धी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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