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________________ शंका-समाधान कि उससे पूर्वके शरीरस्य स्थौल्यनिर्वर्तक ' इत्यादिसे, क्योंकि उसी शास्त्रीय परिभाषाके करनेपर, जो उससे पहले नहीं की गई है, शंकाकारने ' तथापि ' से शंकाका उत्थान किया है। (जैनसंदेश, १५ फरवरी १९४०) समाधान-यहांपर 'तथापि ' से शंका मान लेनेपर 'शरीरस्य स्थौल्यनिर्वर्तकं कर्म बादरमुच्यते' इसे आगमिक परिभाषा मानना पड़ेगी। परन्तु यह आगमिक परिभाषा नहीं है। धवलाकारने स्वयं इसके पहले 'न बादरशब्दोऽयं स्थूलपर्यायः' इत्यादि रूपसे इसका निषेध कर दिया है । अतः शंकाकारके मुखसे ही स्थूल और सूक्ष्मकी परिभाषाओंका कहलाना ठीक है, ऐसा समझकर ही उन्हें शंकाके साथ जोड़ा गया है। पृष्ठ २९७ १८ शंका-'ऋद्धरुपर्यभावात् ' पाठ अशुद्ध प्रतीत होता है, उसके स्थानमें · ऋढेरुत्पस्यभावात् ' पाठ ठीक प्रतीत होता है। (जैनसंदेश, १५ फरवरी १९४०) समाधान-उक्त पाठके ग्रहण करनेपर भी 'ऋद्धरुपरि ' इतने पदका अर्थ ऊपरसे ही जोड़ना पड़ता है, और उस पाठके लिए प्रतियोंका आधार भी नहीं है। इसलिए हमने उपलब्ध पाठको ज्योंका त्यों रख दिया था। हालहीमें धवला अ. पत्र २८५ पर एक अन्य प्रकरण सम्बंधी एक वाक्य मिला है, जो उक्त पाठके संशोधनमें अधिक सहायक है । वह इस प्रकार है---' पमत्ते तेजाहारं णस्थि, लद्धीए उवरि लद्धीणमभावा ।' इसके अनुसार उक्त पाठको इस प्रकार सुधारना चाहिए 'ऋद्धेपरि ऋद्धरभावात् ' अथवा 'ऋद्धेः ऋढेरुपर्यभावात् ' तदनुसार अर्थ भी इस प्रकार होगा'क्योंकि, एक ऋद्धिके ऊपर दूसरी ऋद्धिका अभाव है'। पृष्ठ ३०० १९ शंका-६० वी गाथा (सूत्र) का अर्थ करते हुए लिखा है कि 'तत्र कार्मणकाययोगः स्यादिति '। जिसका अर्थ आपने ' इषुगतिको छोड़कर शेष तीनों विग्रहगतियोंमें कार्मणकाययोग होता है, ऐसा किया है। सो यहां प्रश्न होता है कि इषुगतिमें कौनसा काययोग होता है ? ( नानकचंदजी, पत्र १.४.४०) समाधान-इषुगतिमें औदारिकमिश्रकाय और वैक्रियिकमिश्रकाय, ये दो योग होते हैं, क्योंकि उपपातक्षेत्रके प्रति होनेवाली ऋजुगतिमें जीव आहारक ही होता है । अनाहारक केवल विप्रहवाली गतियों में ही रहता है । इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि पाणिमुक्ता, लांगलिका और गोमूत्रिका, इन तीन गतियोंके अन्तिम समयमें भी जीव आहारक हो जाता है, क्योंकि, अन्तिम समयमें उपपातक्षेत्रके प्रति होनेवाली गति ऋजु ही रहती है। इस व्यवस्थाको ध्यानमें रखकर ही सर्वार्थसिद्धिमें ' एकं द्वौ बीन्वानाहारकः' इस सूत्रकी व्याख्या करते हुए यह कहा है कि 'उपपादक्षेत्र प्रति ऋज्व्यां गतो आहारकः । इतरेषु त्रिषु समयेषु अनाहारकः ।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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