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षट्खंडागमकी प्रस्तावना सकता है और अविसंवादी भी। अनध्यवसाय विसंवादी ज्ञानका भेद है। उसमें जिस तरहसे विसंवादित्व और अविसंवादित्वकी चर्चा दी गई है वह स्याद्वादकी दृष्टिके अनुकूल होते हुए भी चित्तको नहीं लगती।
(जैनसंदेश, १५ फरवरी १९४०) समाधान- यद्यपि प्रतिभासका जो अर्थ किया गया है, वह स्वयं शंकाकारके मतसे भी सदोष नहीं है, तथापि यदि प्रतिभासका अर्थ ज्ञानसामान्य भी ले लिया जाय, तो भी कोई आपत्ति नहीं आती है। ऐसी अवस्थामें अनुवाद पंक्ति १२ में ‘और अनध्यवसायरूप जो प्रतिभास है' के स्थानमें ' और जो ज्ञान-सामान्य है' अर्थ करना चाहिए।
पृष्ठ १९६ १५ शंका-- 'असर्वज्ञानां व्याख्यातृत्वाभावे आषसम्ततेविच्छेदस्यार्थशून्याया वचनपद्धतेरार्षत्वाभावात् ' । यहाँ विच्छेदस्य ' के स्थानमें 'विच्छेदः ' पाठ अच्छा जंचता है। उससे वाक्यरचना भी ठीक हो जाती है।
(जैनसंदेश, १५ फरवरी १९४० ) समाधान--प्राप्त प्रतियोंसे जो पाठ समुपलब्ध हुआ उसकी यथाशक्ति संगति अनुवादमें बैठा ली गई है । मूडबिद्रीसे भी उस पाठके स्थानपर हमें कोई पाठान्तर प्राप्त नहीं हुआ। तथापि विच्छेदस्य' के स्थानपर 'विच्छेदः स्यात् ' पाठ स्वीकार कर लेनेसे अर्थ और अधिक सीधा और सुगम हो जाता है । तदनुसार उक्त शंकाका अनुवाद इस प्रकार होगा
शंका--असर्वज्ञको व्याख्याता नहीं मानने पर आर्ष-परम्पराका विच्छेद हो जायगा, क्योंकि, अर्थशून्य वचन-रचनाको आर्षपना प्राप्त नहीं हो सकता है।
पृष्ठ २१३ १६ शंका-संस्कृत (मूल) में जो ‘णवक' शब्द आया है उसका अर्थ आपने कुछ न करके नवक ' ही लिखा है । सो इसका क्या अर्थ है ? (नानकचंदजी, पत्र १.४.४० )
समाधान- नवक' का अर्थ नवीन है, इसलिए सर्वत्र नवीन बंधनेवाले समयप्रबद्ध को नवक समयप्रबद्ध कह सकते हैं। पर प्रकृतमें विवक्षित प्रकृतिके उपशमन और क्षपणके द्विचरमावली और चरमावली अर्थात् अन्तकी दो आवलियोंके कालमें बंधनेवाले समयप्रबद्धको ही नवकसमयप्रबद्ध कहा है। इस नवकसमयप्रबद्धका उस विवक्षित प्रकृतिके उपशमन या क्षपणकालके भीतर उपशम या क्षय न होकर उपशमन या क्षपणकालके अनन्तर एक समय कम दो आवलीकालमें उपशम या क्षय होता है । एक समय कम दो आवलीकालमें उपशम या क्षय कैसे होता है, इसके लिए प्रथमभाग पृष्ठ २१४ का विशेषार्थ देखिये । विशेषके लिए देखिये लब्धिसार, क्षपणासार ।
पृष्ठ २५० १७ शंका-शंकाका प्रारंभ प्रथम पंक्तिमें आये हुए ' तथापि ' शब्दसे जान पड़ता है, न
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