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________________ शंका-समाधान समयमैं तो गिने चुने ही श्रुतकेवली हुए हैं । संख्यात हजार सकल श्रुतके धारियोंका पता तो शास्त्रोंसे नहीं लगता । अतः यह अंश विचारणीय प्रतीत होता है । ( पृष्ठ ६५) (जैनसंदेश, १५ फरवरी १९४०.) समाधान- त्रिलोकप्रज्ञप्ति, हरिवंशपुराण आदिमें भगवान महावीरके तीर्थकालमें पूर्वधारी ३००, केवलज्ञानी ७००, विपुलमती मन:पर्ययज्ञानी ५००, शिक्षक ९९००, अवधिज्ञानी १३००, वैक्रियिकऋद्धिधारी ९०० और वादी ४०० बतलाये हैं। इनमें यद्यपि पूर्वधारी केवल तीनसौ ही बतलाये हैं, पर केवलज्ञानी केवलज्ञानोत्पत्तिके पूर्व श्रेणी-आरोहणकालमें पूर्वविद् हो चुके हैं और विपुलमती मनःपर्ययज्ञानी जीव तद्भव-मोक्षगामी होनेके कारण पूर्वविद् होंगे। अवधिज्ञानी आदि साधुओंमें भी कुछ पूर्वविद् हों तो आश्चर्य नहीं । पर अवधिज्ञान आदिकी विशेषताके कारण उनकी गणना पूर्वविदोंमें न करके अवधिज्ञानी आदिमें की गई हो। इस प्रकार परि. पाटी क्रमके विना भगवान् महावीरके तीर्थकालमें हजारों द्वादशांगधारी माननेमें कोई आपत्ति नहीं दिखाई देती है। पृष्ठ ६८ १३ शंका--'धदगारवपडिबद्धो' का अर्थ 'रसगारवके आधीन होकर' उचित नहीं जंचता । गारल ( गारव ? ) दोषका अर्थ मैंने किसी स्थानपर देखा है, किन्तु स्मरण नहीं आता। 'धद ' का अर्थ रस भी समझमें नहीं आता । स्पष्ट करनेकी आवश्यकता है। (जैनसंदेश, १५ फरवरी १९४०) समाधान- 'गारव' पदका अर्थ गौरव या अभिमान होता है, जो तीन प्रकारका हैऋद्धिगारव, रसगारव और सातगारव । यथा तओ गारवा पन्नत्ता। तं जहा-इडिगारवे रसगारवे सातागारवे । स्था. ३, ४. ऋद्धियों के अभिमानको ऋद्धिगारव, दधि दुग्ध आदि रसोंकी प्राप्तिसे जो अभिमान हो उसे रसगारव, तथा शिष्यों व भक्तों आदि द्वारा प्राप्त परिचर्याके सुखको सातगारव या सुखगारव कहते हैं। उक्त वाक्यसे हमारा अभिप्राय : रसादि गारवके आधीन होकर' से है। मूलपाठका संस्कृत रूपान्तर हमारी दृष्टिमें ‘धृतगारवप्रतिबद्धः' रहा है। प्रतियोंमें 'धद' के स्थानपर 'दध' पाठ भी पाया जाता है जिससे यदि दधिका अभिप्राय लिया जाय तो उपलक्षणासे रसगारवका अर्थ आजाता है। पृष्ठ १४८ __ शंका १४.-प्रतिभासः प्रमाणञ्चाप्रमाणञ्च' इत्यादि बाक्यमें प्रतिभासका अनध्यवसायरूप अर्थ ठीक प्रतीत नहीं होता । मेरी समझमें उसका अर्थ वहां ज्ञान-सामान्य ही होना चाहिए, • क्योंकि ज्ञानका प्रामाण्य और अप्रामाण्य बायार्थ पर अवलम्बित है, अतः वह विसंवादी भी हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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