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________________ १, २, १५.] दव्वपमाणाणुगमे णिरयगदिपमाणपरूवणं [१२१ कालो । तस्सुवरि सिद्धाणंतगुणा । को गुणगारो ? अभवसिद्धिएहिं अणंतगुणो सिद्धाणमसंखेज्जदिभागो । मिच्छाइट्ठी अणंतगुणा । को गुणगारो ? अभवसिद्धिएहि वि अणंतगुणो सिद्धेहि वि अणंतगुणो भवसिद्धियाणमणंताभागस्स अणंतिमभागो। एवमोघे चोदसगुणहाणपरूवणा समत्ता । दवट्टियमवलंबिय द्विदसिस्साणमणुग्गहणटुं सामण्णेण चोद्दसगुणहाणपमाणपरूवणं करिय पज्जवट्ठियणयमवलंबिय ठियसिसाणमणुग्गहणट्ठमाह आदेसेण गदियाणुवादेण णिरयगईए णेरइएसु मिच्छाइट्ठी दव्वपमाणेण केवडिया, असंखेज्जा ॥ १५ ॥ आदेसेण पज्जवणयावलंबणेण गुणहाणाणं पमाणपरूवणं कीरदे । एत्थ इत्यंभावलक्खणो तदियाणिदेसो त्ति दट्टयो । गदियाणुवादेण । सा च भेदपरूवणा चोदसमग्गणढाणाणि अस्सिऊण द्विदा । तेहि अक्कमेण परूवणा ण संभवदीदि अपगदमग्गणट्ठाणाणि अवणिय पयदमग्गणवाणजाणावणटुं गदिग्गहणं। आदेसमस्सिऊण जा गुणहाणाणं पमाण पल्योपमके ऊपर सिद्ध उससे अनन्तगुणे हैं। गुणकार क्या है ? अभव्यसिद्धोंसे अनन्तगुणा या सिद्धोंके असंख्यातवां भाग गुणकार है। सिद्धोंसे मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तगुणे हैं । गुणकार क्या है ? अभव्योंसे भी अनन्तगुणा, सिद्धोंसे भी अनन्तगुणा और भव्यसिद्धोंके अनन्त बहुभागोंका अनन्तवां भाग गुणकार है। इसप्रकार ओघमें चौदह गुणस्थान प्ररूपणा समाप्त हुई। द्रव्यार्थिक नयका अवलम्बन करके स्थित हुए शिष्योंका अनुग्रह करनेके लिये सामान्यसे चौदहों गुणस्थानों के द्रव्यप्रमाणका प्ररूपण करके अब पयोयार्थिक नयका अवलम्बन करके स्थित शिष्योंका अनुग्रह करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं __ आदेशकी अपेक्षा गतिमार्गणाके अनुवाइसे नरकगतिगत नारकियोंमें मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? असंख्यात हैं ।। १५॥ आदेशसे अर्थात् पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा गुणस्थानोंके प्रमाणका प्ररूपण करते हैं। यहां 'आदेसेण' इस पदमें तृतीया विभक्तिका निर्देश इत्थंभावलक्षण है, ऐसा समझना चाहिये । अब 'गदियाणुवादेण' इस पदका स्पष्टीकरण करते हैं। ऊपर जो भेदप्ररूपणाकी प्रतिक्षा की है वह भेदप्ररूपणा चौदहों मार्गणाओंका आश्रय लेकर स्थित है। परंतु उनके द्वारा अक्रमसे अर्थात् युगपत् प्ररूपणा नहीं हो सकती है, इसलिये अविवक्षित मार्गणास्थानोंको छोड़कर प्रकृत मार्गणास्थानके ज्ञान करानेके लिये सूत्रमें गति पदका ग्रहण किया है। आदेशका आश्रय करके जो गुणस्थानोंके प्रमाणकी प्ररूपणा की जाती है वह आचार्य परंपराके द्वारा १ असंखेज्जा रदया। अनु. सूत्र १४१, पृ. १७९. २ इत्थंभूतलक्षणे ( तृतीया)। पाणिनि, २, ३, २०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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