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१, २, ६. ]
दव्त्रपमाणानुगमे सासणसम्माइट्ठिआदिपमाणपरूवणं
[ ६३
आगच्छदि । तस्स भागहारस्स अद्धच्छेदणयमेत्ते रासिस्स अद्धच्छेदणए कदे विमिच्छाइसी चैत्र आगच्छदि । एवं संखेज्जासंखेज्जाणंतेसु यव्त्रं । घणाघणपरूवणा गदा ।
(साससम्म इपिडि जाव संजदा संजदा त्ति दव्वपमाणेण केवडिया ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । एदेहि पलिदोवममनहरिज्जदि अंतोमुडुत्तेण ॥ ६ ॥ )
एत्थ नाव सासणसम्माइहिरासिस्स पमाणपरूवणं वत्तइस्सामो । सासण सम्माइडी दव्यमाणेण केवडिया ? पलिदोषमस्स असंखेज्जदिभागो । खेत्तकालपमाणेहि किमिदि
उक्त भागहार के जितने अर्धच्छेद हों उतनीवार उक्त भाज्य राशिके अर्धच्छेद करने पर भी मिथ्यादृष्टि जीवराशि ही आती है ।
उदाहरण - उक्त भागहार के ६८ अर्धच्छेद होते हैं, अतः इतनीवार उक्त भज्यमान राशिके अर्धच्छेद करने पर मिथ्यादृष्टि राशि १३ आती है ।
इसीप्रकार संख्यात, असंख्यात और अनन्त स्थानों में भी लगा लेना चाहिये । इसप्रकार गृहतिगुणकार उपरम विकल्पमें घनाघनप्ररूपणा समाप्त हुई ।
सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर संयतासंयत गुणस्थानतक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र हैं । इन चार गुणस्थानों में प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीवों के प्रमाणकी अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त से पल्योपम अपहृत होता है ॥ ६ ॥
उनमें से पहले यहां सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिका प्रमाण बतलाते हैं
सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशि द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितनी है ? पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र है ।
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विशेषार्थ – आगे अंकसंदृष्टि से सासादन सम्यग्दृष्टि आदि चार गुणस्थानवर्ती जीवराशिका प्रमाण लाने के लिये पल्योपमका प्रमाण ६५५३६ और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिका प्रमाण लाने के लिये अवहारकालका प्रमाण ३२ कल्पित किया है । इसप्रकार सासा दनसम्यग्दृष्टिके अवहारकाल ३२ का ६५५३६ प्रमाण पल्योपममें भाग देने पर सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिका प्रमाण २०४८ आता है जो कि पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र है । अर्थप्ररूपणा भी इसीप्रकार जान लेना चाहिये ।
शंका- यहां क्षेत्रप्रमाण और कालप्रमाणकी अपेक्षासे भी सासादनसम्यग्दृष्टि
१ सासादनसम्यग्दृष्टयः सम्यङ् मिथ्यादृष्टयोऽसंयत सम्यग्दृष्टयः संयतासंयताश्च पल्योपमासंख्येयभागप्रमिताः । स. सि., १, ८. मिच्छा सावयसा सण मिस्सा विरदा दुवारणंता य । पल्लासंखेज्जदिममसंखगुणं संखसंखगुणं ॥ गो. जी. ६२४. पल्या संख्यात भागास्तु परे गुणचतुष्टये । पं. सं. ५९. सासायण इचउरो होंति असंखा ॥ पञ्चसं. २, २२.
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