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________________ ६४) छक्खंडागमे जीवाणं [ १, २, ६. सासणसम्माइटिपरूवणा ण परूविदा ? ण, एत्थ मिच्छाइद्विस्सिव तेहि परूवेदधस्स कारणाभावा । किं तत्थ कारणं ? वुच्चदे--असंखेज्जपएसिए लोए कधमणंतो जीवरासी सम्मादि त्ति जादसंदेहणिराकरण खेत्तपमाणं वुचदे । आयविरहिदस्स सिझंतजीवे अवेक्खिय सव्ययस्स सबजीवरासिस्स किं वोच्छेदो होदि, ण होदि त्ति जादसंदेहणिराकरणलं कालपमाणं परूविज्जदि। ण च एदेसु कारणेसु एकं पि कारणमेत्थ संभवइ, अणुवलंभादो । तम्हा खेत्तकालपरूवणा सासणादीणं गंथे ण परूविदा । एत्थ जीवराशिका प्ररूपण क्यों नहीं किया ? समाधान-नहीं, क्योंकि, जिसप्रकार मिथ्यादृष्टि जीवराशिका क्षेत्रप्रमाण और कालप्रमाणकी अपेक्षासे प्ररूपण करनेका कारण था, उसप्रकार यहां पर उक्त दोनों प्रमाणोंके द्वारा सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिके प्ररूपण करनेका कोई कारण नहीं है । अतएव उक्त प्रमाणोंके द्वारा सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिका प्ररूपण नहीं किया। शंका- वहां पर उक्त दोनों प्रमाणोंके द्वारा मिथ्यादृष्टि जीवराशिके प्ररूपण करनेका क्या कारण है? समाधान- असंख्यात प्रदेशी लोकमें अनन्तप्रमाण जीवराशि कैसे समा जाती है, इसप्रकारसे उत्पन्न हुए संदेहके दूर करनेके लिये क्षेत्रप्रमाणका कथन किया जाता है । तथा आयरहित और सिद्धयमान जीवोंकी अपेक्षा व्ययसहित संपूर्ण जीवराशिका विच्छेद होता है या नहीं, इसप्रकार उत्पन्न हुए संदेहके दूर करनेके लिये कालप्रमाणका प्ररूपण किया जाता है। परंतु इन कारणोंमेंसे यहां पर एक भी कारण संभव नहीं है, क्योंकि, यहां पर कोई भी कारण नहीं पाया जाता है। अतः क्षेत्रप्रमाण और कालप्रमाणके द्वारा सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिका प्ररूपण ग्रन्थमें नहीं किया। विशेषार्थ-शंकाकारका कहना है कि जिसप्रकार पहले मिथ्यादृष्टि जीवराशिके प्रमाणका प्ररूपण करते समय 'अणंताणताहि ओसप्पिणिउस्सपिणीहि ण अवहिरंति कालेण' इस सूत्रके द्वारा मिथ्यादृष्टि जीवराशिका कालकी अपेक्षा प्रमाण कहा है, और खेत्तेण अणंताणंता लोगा' इस सूत्रके द्वारा मिथ्यादृष्टि जीवराशिका क्षेत्रकी अपेक्षा प्रमाण कहा है, उसीप्रकार प्रकृतमें भी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिका प्रमाण क्षेत्र और कालप्रमाणकी अपेक्षासे कहना चाहिये। शंकाकारकी इस शंकाका समाधान इसप्रकार समझना चाहिये कि मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तानन्त होते हैं, अतएव उनका असंख्यातप्रदेशी लोकाकाशमें रहना असंभव है ऐसी शंका किसीको हो सकती है। अतः इसके परिहारके लिये मिथ्यादृष्टि जीवराशिका क्षेत्रप्रमाणकी अपेक्षा प्ररूपण किया। दूसरे, मोक्षको जानेवाले जीवोंकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टि जीवराशिका व्यय तो निरंतर चालू है पर उनकी वृद्धि कभी भी नहीं होती इसलिये उनका अभाव हो जायगा, ऐसी शंका भी किसीको हो सकती है, अतएव इसके परिहार करनेके लिये कालप्रमाणकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टि जीवराशिका प्ररूपण किया कि अनन्तानन्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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