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षट्खंडागमकी प्रस्तावना
(अ) श्रेणी के पाठभेद भाग १ में ६२, भाग २ में २५ और भाग ३ में ६२, इस प्रकार कुल १४९ पाये गये हैं । भेद प्रायः बहुत थोड़ा है, और अर्थकी दृष्टिसे तो अत्यन्त अल्प । यह इस बात से और भी स्पष्ट हो जाता है कि इन पाठभेदों के कारण अनुवादमें किंचित् भी परिवर्तन करने की आवश्यकता केवल भाग १ मे १९, भाग २ में १० और भाग ३ में ३२, इस प्रकार कुल ६१ स्थलोंपर पड़ी है। शेत्र ८८ स्थलों का पाठपरिवर्तन वांछनीय होनेपर भी उससे हमारे किये हुए भाषानुवाद में कोई परिवर्तन आवश्यक प्रतीत नहीं हुआ ।
५०
(ब) श्रेणी के पाठभेद भाग १ में ३०, भाग २ में कोई नहीं, और भाग ३ में ३२, इसप्रकार कुल ६२ पाये गये, और इसमें भी किंचित् अनुवाद-परिवर्तन केवल प्रथम भागमें १७ स्थलों पर आवश्यक समझा गया है ।
(स) श्रेणी के पाठभेद भाग १ में ६०, भाग २ में ३० और भाग ३ ६७, इसप्रकार कुल १५७ पाये गये है । इनसे अर्थ में कोई भेदकी तो संभावना ही नहीं है। इनमें अधिकांश पाठ तो ऐसे हैं जो उपलब्ध प्रतियोंमें भी पाये जाते थे, किन्तु हमने प्राकृत व्याकरण के नियमोंको ध्यान में रखकर परिवर्तित किये हैं । ( देखिये ' पाठ संशोधन के नियम, ' षट्खं. भाग १, प्रस्तावना
पृ. १०-१३)
(ड) श्रेणी के पाठभेद भाग १ में ३८, भाग २ में १५, भाग ३ में ६७, इस प्रकार कुल १२० पाये गये । इनमें अधिकांश तो स्पष्टतः अशुद्ध हैं, और जहां उनके शुद्ध होनेकी संभावना हो सकती है, वहां टिप्पणी देकर स्पष्ट कर दिया गया है कि वे पाठ प्रकृतमें क्यों नहीं ग्राह्य हो
सकते ।
इस प्रकार कुल पाठभेद १४२+६२+१५७+ १२० =४८८ आये हैं । संक्षेपमें यह परिस्थिति इस प्रकार है
भाग
१
२
३
कुल
मूल पाठ में भेद
ब
स
ड
६२
३०
६०
३८
२५
X
३०
१५
६२ ३२ ६७ ६७ १४९ । ६२ । १५७ १२०
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अ
कुल
१९०
७०
२२८
४८८
अनुवाद परिवर्तन
ब १७
कुल ३६
१०
१०
३२
X
३२ ६१ । १७ । ७८
मूलपाठके संशोधनमें अर्थ और शैली की पाठ स्खलित प्रतीत हुए थे । प्रतियोंका आधार न होनेसे हमने वे पाठ जिससे पाठक सुलभता हमारे जोड़े हुए पाठको अलग पहिचान सकें । गत द्वितीय भाग में भी इसीप्रकार पाठ कहीं कहीं जोड़ना पड़े थे । किन्तु वह आलाप प्रकरण होनेसे स्खलन शीघ्र दृष्टिमें आजाते हैं । पर इस
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अ
१९
दृष्टिसे कुछ स्थानोंपर हमें कोष्ठकोंके भीतर रखे हैं,
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