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________________ प्राक् कथन प्रस्तुत भागके पाठ-संशोधन व अनुवादमें सम्पादकोंको विशेष कठिनाईका साम्हना करना पड़ा है । एक तो यहांका विषय ही बड़ा सूक्ष्म है, और दूसरे उसपर धवलाकारने अपने समयके गणित शास्त्रकी गहरी पुट जमाई है । इसने हमें बढ़ा हैरान किया, तथापि किसी अज्ञात शक्तिकी प्रेरणा, जनताकी सद्भावना और विद्वानोंके सहयोगसे वह कठिनाई भी अन्ततः हल हो ही गई, और अब हम यह भाग भी पूर्व भागोंके समान कुछ आत्मविश्वासके साथ पाठकोंके हाथमें सौंपते हैं। मूल भागमें सामान्य विषय-प्ररूपणके अतिरिक्त कोई २८० शंकाएं उठाकर उनका समाधान किया गया है । इसके गहन, अपरिचित और दुरूह भागको अनुवादमें बीजगणित और अंकगणितके कोई २८० उदाहरणों तथा ५० विशेषार्थों व ३३३ पादटिप्पणोद्वारा सुगम और सुबोध बनानेका प्रयत्न किया गया है। इसका गणित बैठानेमें हमें हमारे कालेजके सहयोगी, गणितके अध्यापक प्रोफेसर काशीदत्तजी पांडे, एम. ए., से विशेष सहायता मिली है । उन्होने कई दिनोंतक लगातार घंटों हमारे साथ बैठ बैठकर करण-गाथाओंको समझने समझाने व अन्य गणित व्यवस्थित करनेमें बड़ी रुचि और लगनसे खूब परिश्रम किया है। गाथा नं. २८ (पृ. ४७) का गणित नागपुरके वयोवृद्ध गणिताचार्य, हिस्लप कालेजके भूतपूर्व गणिताध्यापक प्रोफेसर जी. के. गर्देने बैठा देने की कृपा की है, तथा उसीका दूसरा प्रकार, एवं पृ. ५०-५१ पर दिये हुए पश्चिम-विकल्पका जो गणित संबंधी सामंजस्य प्रस्तावनाके पृ. ६६ पर ' अर्थसंबंधी विशेष सूचना' शीर्षकसे दिया गया है वह लखनऊ विश्वविद्यालयके गणिताचार्य व · हिन्दू गणितशास्त्रका इतिहास' के लेखक डाक्टर अवधेश नारायणसिंहजीने लगाकर भेजनेकी कृपा की है। इस अत्यन्त परिश्रम पूर्वक दिये हुए सहयोगके लिये उपर्युक्त सभी सज्जनोंके हम बहुत ही कृतज्ञ हैं । इस भागमें यदि कुछ सुन्दर और महत्त्वपूर्ण सम्पादन कार्य हुआ है तो वह इसी सहयोगका परिणाम है । हां, जो कुछ त्रुटियां और स्खलन रहे हों उनका उत्तरदायित्व हमारे ही ऊपर है, क्योंकि, अन्ततः समस्त सामग्रीको वर्तमान रूप देनेकी जिम्मेदारी हमारी ही रही है। इन सिद्धान्त ग्रंथोंकी ओर विद्वान् पाठक कितने आकर्षित हुए हैं, यह उन अभिप्रायोंसे स्पष्ट है जो या तो समालोचनादिके रूपमें विविध पत्रोंमें प्रकाशित हो चुके हैं, या जो विशेष पत्रों द्वारा हमें प्राप्त हुए हैं । उन सभी सदभिप्रायोंके लिये हम लेखकोंके विशेष आभारी हैं । इन अभिप्रायोंमें ऐसी अनेक सैद्धान्तिक व अन्य शंकाएं भी उठाई गई हैं जो ग्रंथके सूक्ष्म अध्ययनसे पाठकोंके हृदयमें उत्पन्न हुई। कितने ही अंशमें उन शंकाओंके उत्तर भी हम यथाशक्ति उन उन पाठकोंको व्यक्तिगत रूपसे भेजते गये हैं । अब हम उनमेंसे कुछ महत्त्वपूर्ण शंकाएं और उनके समाधान, इस भागकी भूमिकामें पृष्ठक्रमसे व्यवस्थित करके प्रकाशित कर रहे हैं, जिससे ग्रंथराजके सभी पाठकोंको लाभ हो और इस सिद्धान्तके समझने समझाने में सहायता पहुंचे । गहन सिद्धान्तोंके अर्थपर प्रकाश डालनेवाले अभिमतों का हम सदैव आदर करेंगे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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