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प्राक् कथन सम्पादन-संबंधी हमारी शेष साधन-सामग्री और सहयोगप्रणाली पूर्ववत् ही इस भागके लिए भी उपलब्ध रही। हमें अमरावती जैन मन्दिरकी हस्तलिखित प्रतिके अतिरिक्त आराके सिद्धान्तभवन
और कारंजाके महावीर ब्रह्मचर्याश्रमकी प्रतियोंका मिलानके लिये लाभ मिलता रहा, तथा सहारनपुरकी प्रतिके नोट किये हुए पाठभेद भी समुपलब्ध रहे । अतएव हम उनके अधिकारियोंके बहुत आभारी हैं । मूडबिद्रीय प्रतियोंके मिलान प्राप्त हो जानेसे हमने इन प्रतियोंके परस्पर पाठभेद व छूटे हुए पाठ आदि देना आवश्यक नहीं समझा ।
हमारे सम्पादनकार्यमें विशेषरूपसे सहायक पं देवकीनन्दनजी सिद्धान्तशास्त्री गत तीन चार मास बहुत ही व्याधिग्रसित रहे, जिसकी हमें अत्यन्त चिन्ता और आकुलता रही। यद्यपि अभी भी वे बहुतही दुर्बल हैं, तथापि व्याधि दूर हो गई है और वे उत्तरोत्तर स्वास्थ्य लाभ कर रहे हैं जिसका हमें परम हर्ष है। हमें आशा और विश्वास है कि वे शीघ्र ही पूर्ण स्वास्थ्य लाभ करके अपनी विद्वत्ताका लाभ हमें देते रहनेमें समर्थ होंगे।
हमारे सहयोगी पं. फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीका नवजात पुत्र गत फरवरी मासमें अत्यन्त रुग्ण हो गया, जिससे फरवरीके अन्तमें पंडितजीको अकस्मात् देश जाना पड़ा। यथाशक्ति खूब उपचार करने पर भी दुर्दैवसे पंडितजीको पुत्र-वियोगका अपार दुख सहन करना पड़ा, जिसका हमें . भी अत्यन्त शोक है, और शेष कुटुम्बकी सहानुभूतिसे हृदय द्रवित होता है । तबसे फिर पंडितजी वापिस नहीं आ सके। चूंकि इस समय पंडित फूलचन्द्रजी हमारे सन्मुख नही हैं, इससे हमें यह निस्संकोच प्रकट करते हुए हर्ष होता है कि प्रस्तुत कठिन ग्रन्थको वर्तमान स्वरूप देनेमें पंडितजीका भारी प्रयास रहा है, जिसके लिये शेष सम्पादकवर्ग उनका बहुत आभारी है।
प्रथम भागके प्रकाशित होनेसे ठीक आठ माह पश्चात् ही दूसरा भाग जुलाई १९४० में प्रकाशित हुआ था। मार्च १९४१ में आठ माहके पश्चात् ही यह तीसरा भाग प्रकाशमें आ रहा है। जो कुछ सहयोग और सहानुभूति इस महत्त्वपूर्ण साहित्यके प्रकाशनमें मिल रही है उससे आशा और विश्वास होता है कि यह पुण्य कार्य सुचारु रूपसे प्रगतिशील होता जायगा ।
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किंग एडवर्ड कॉलेज,
अमरावती १-४-४१
हीरालाल जैन
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