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२१८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, २, २६. एदस्स सुत्तस्स वि दोहि पयारेहि अवदार' परूविय णिरओघकालपरूवणासुत्तस्सेव वक्खाणं कायव्वं । एत्थ मिच्छाइट्ठिणिदेसो किमहूँ ण कदो १ ण, अणंतरादीदसुत्तादो मिच्छाइट्टि त्ति अणुवट्टमाणसादो।
अध सिया असंखेज्जासंखेज्जासु ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीसु अदिकंतासु तिरिक्खगईए पंचिंदियतिरिक्खाणं वोच्छेदो हवदि, पंचिंदियतिरिक्खट्ठिदीए उवरि तत्थ अवट्ठाणाभावादो त्ति ? ण एस दोसो, एइंदिय-विगलिंदिएहितो देव-णेरइय-मणुस्सेहिंतो च पंचिंदियतिरिक्खेसुप्पज्जमाणजीवसंभवादो। आयविरहिय-सव्वयरासीए वोच्छेदो हवदि । एसा पुण सव्वया आयसहिया चेदि ण वोच्छिज्जदे । सम्मामिच्छाइद्विरासीव किं ण भवदीदि चेण्ण, तत्थ गुणहिदिकालादो अंतरकालस्स बहुत्तुवलंमादो। ण च एत्थ पंचिंदियतिरिक्खेसु भवद्विदिकालादो विरहकालस्स बहुत्तणमत्थि, अंतरकालस्स अंतो
इस सूत्रका भी दोनों प्रकारसे अवतारका प्ररूपण करके सामान्य नारकियोंके काल प्रमाणकी अपेक्षा प्ररूपण करनेवाले सूत्रके व्याख्यानके समान व्याख्यान करना चाहिये (देखो सूत्र १६)।
शंका-इस सूत्रमें मिथ्यादृष्टि पदका निर्देश क्यों नहीं किया ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, अनन्तर पूर्ववर्ती सूत्रसे 'मिथ्याष्टि' इस पदकी अनुवृत्ति चली आ रही है।
शंका-कदाचित् असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियोंके निकल जाने पर तिर्येचगतिके पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंका विच्छेद हो जायगा, क्योंकि, पंचेन्द्रिय तिर्यचकी स्थितिके ऊपर तिर्यंचगतिमें उनका अवस्थान नहीं रह सकता है ? ।
समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, एकेन्द्रियों और विकलेन्द्रियोंमेंसे तथा देव, नारकी और मनुष्योंमेंसे पंचेन्द्रिय तिर्यों में उत्पन्न होनेवाले जीव संभव हैं। जो राशि व्ययसहित और आयरहित होती है उसका ही सर्वथा विच्छेद होता है। परंतु यह पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टि राशि तो व्यय और आय इन दोनों सहित है, इसलिये इसका विच्छेद नहीं होता है
शंका-जिसप्रकार सम्यग्मिथ्यादृष्टि राशि कदाचित् विच्छिन्न हो जाती है, उसीप्रकार यह राशि भी क्यों नहीं होती है?
समाधान-नहीं, क्योंकि, वहां पर गुणस्थानके कालसे अन्तरकाल बड़ा है, इसलिये सम्यग्मिथ्यादृष्टि राशिका कदाचित् विच्छेद हो जाता है। परंतु यहां पंचेन्द्रिय तिर्यों में भवस्थितिके कालसे विरहकाल बड़ा नहीं है, क्योंकि, आगममें पंचेन्द्रिय तिर्योंके अन्तर
१ अप्रतौ अवहारं ' इति पाठ।
२ प्रतिषु ' सव्वरासीए ' इति पाठः।
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