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________________ १, २, २७.] दव्वपमाणाणुगमे तिरिक्खगदिपमाणपरूवर्ण [२१९ मुहुत्तुवएसादो। भवढिदिकालस्स' सादिरेयतिण्णिपलिदोवमोवदेसादो । 'णाणाजीव पडुच्च सव्वद्धा' त्ति सुत्तादो वा विरहाभावो णबदे । एवं कालपरूवणा गदा । खेत्तेण पंचिंदियतिरिक्खमिच्छाइट्ठीहि पदरमवहिरदि देवअवहारकालादो असंखेज्जगुणहीणकालेण ॥ २७ ॥ __ असिद्धण देवअवहारकालेण कधं पंचिंदियतिरिक्खमिच्छाइट्ठीणमवहारकालो साहिज्जदे ? ण एस दोसो, अणाइणिहणस्स आगमस्स असिद्धत्ताणुववत्तीदो। अणवगमो असिद्धत्तणमिदि चे ण, वक्खाणादो तदवगमसिद्धीदो। संपहि वेसय-छप्पण्णंगुलवग्गमावलियाए असंखेज्जदिभागेण भागे हिदे पंचिंदियतिरिक्खमिच्छाइडिअवहारकालो होदि। अहवा आवलियाए असंखेज्जदिभागेण वेसय-छप्पण्णमेत्तसूचिअंगुलेसु भागे हिदेसु तत्थ ज लद्धं तं वग्गिदे पंचिंदियतिरिक्खमिच्छाइडिअवहारकालो होदि । अहवा पुचिल्ल. मावलियाए असंखेज्जदिभागं वग्गेऊण पण्णहिसहस्स-पंचसय-छत्तीसमेत्तपदरंगुलेसु भागे कालका अन्तर्मुहर्तमात्र उपदेश पाया जाता है; और भवस्थिति कालका कुछ आधिक तीन पल्योपमका उपदेश दिया है। इसलिये पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टि राशिका विच्छेद नहीं होता है । अथवा, 'नाना जीवोंकी अपेक्षा पंचेन्द्रिय तिर्यच मिथ्यादृष्टि जीव सर्व काल रहते हैं। इस सूत्रसे भी पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टियोंका विरहाभाव जाना जाता है। इसप्रकार काल. प्ररूपणा समाप्त हुई। क्षेत्रकी अपेक्षा पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टियोंके द्वारा देवोंके अवहारकालसे असंख्यातगुणे हीन कालसे जगप्रतर अपहृत होता है ॥ २७॥ शंका -देवोंका प्रमाण लानेके लिये जो अवहारकाल कहा है वह असिद्ध है, इसलिये असिद्ध देव अवहारकालसे पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल कैसे साधा जाता है ? समाधान – यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, अनादिनिधन आगम असिद्ध नहीं हो सकता है। शंका-आगमका ज्ञान नहीं होना ही आगमका आसिद्धत्व है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, व्याख्यानसे आगमके ज्ञानकी सिद्धि हो जाती है। अब बतलाते हैं कि दोसौ छप्पन सूच्यंगुलके वर्गको आवलीके असंख्यातवें भागसे भाजित करने पर पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल होता है। अथवा, आपलीके असंख्यातवें भागसे दोसौ छप्पन सूच्यंगुलोंके भाजित करने पर वहां जो लब्ध आवे उसका वर्ग कर देने पर पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टिसंबन्धी अपहारकाल होता है । अथवा, पहले स्थापित आवलीके असंख्यातवें भागको वर्गित करके जो प्रमाण आवे उससे पेंसठ हजार पांचसो १ प्रतिषु । अव द्विदिकालस्स' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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