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________________ १, २, ५. ] दव्वपमाणानुगमे मिच्छाइट्ठिपमाणपरूवणं च्छदित्तिण संदेहो ( ? ) । कारणं गदं । तस्स का णिरुत्ती ? सिद्धतेरसगुणड्डाणपमाणेण सव्वजीवरासिं भागे हिदे जं भागलद्धं तं विरलेऊण एक्केकस्स रूवस्स सव्वजीवरासिं समखंड करिय दिण्णे रूवं पडि सिद्धतेरसगुणद्वाणपमाणं पावदि । तत्थ बहुखंडा मिच्छाइट्ठि सिपमाणं होदि । एयं खंड सिद्धतेरसगुणद्वाणपमाणं हवदि । णिरुत्ती गदा । यहां कारण बतलाया जा रहा है, अर्थात सर्वजीवराशि व सिद्धतेरस गुणस्थानवर्ती राशिकी अपेक्षा ध्रुवराशिके द्वारा मिध्यादृष्टि राशिका प्रमाण निश्चित करना । तदनुसार पाठ कुछ निम्न प्रकार होना चाहिये था— सिद्धतेरसगुणट्टाणेण मिच्छाइ भिजिद सिद्धतेरसगुणहाणवग्गेण च अब्भहियसव्व जीवरासिणा सव्वजीवरासिउवरिमवग्गे भागे हिदे किमागच्छदि ? सिद्धतेरसगुणट्टाणहीणसव्व जीवरासी आगच्छदि तिण संदेहो । अर्थात् सिद्धतेरस गुणस्थानवर्ती राशिले अधिक और मिध्यादृष्टि राशिसे भाजित सिद्धतेरसगुणस्थानवर्गसे अधिक सर्व जीवराशिका सर्व जीवराशिके उपरिम वर्ग में भाग देने पर क्या आता है ? सिद्धतेरसगुणस्थान राशिसे हीन सर्वजीवराशि आती है, इसमें संदेह नहीं । उदाहरण (बीजगणित से ) = ब = क ब ( मिथ्यादृष्टि ) क अ + क अ + ३ ३ ३ ३ ३ १ १ १ १ १ १ १ ३ [ ५१ ब १६' ३+१३+१६ ( अंकगणितसे ) - = १३ = १६ - ३ ( मिथ्यादृष्टि ) शंका- इसकी अर्थात् मिथ्यादृष्टि जीवरा । शिके प्रमाणके निकालनेकी निरुक्ति क्या है ? समाधान- - सिद्धराशि और सासादनसम्यग्दृष्टि आदि तेरह गुणस्थानवर्ती राशिका संपूर्ण जीवराशिमें भाग देने पर जो भाग लब्ध आवे उसका विरलन करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकके ऊपर संपूर्ण जीवराशिको समान खण्ड करके देयरूपसे स्थापित कर देने पर विरलित राशि के प्रत्येक एकके प्रति सिद्ध और सासादन सम्यग्दृष्टि आदि तेरह गुणस्थानवर्ती जीवोंका प्रमाण प्राप्त होता है । उसमें अर्थात् विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति प्राप्त खण्डों में एक भाग कम बहुभागरूप मिथ्यादृष्टि जीवराशिका प्रमाण है और एक भाग सिद्ध और सासादनसम्यग्दृष्टि आदि तेरह गुणस्थानवर्ती जीवोंका प्रमाण है । इसप्रकार निरुक्तिका वर्णन समाप्त हुआ । उदाहरण सर्वजीवराशि १६: सिद्धतेरस ३, १६३६ =५३ Jain Education International इसप्रकार एक खण्ड ३ सिद्ध और सासादनादि तेरह गुणस्थानवर्ती जीवराशिका प्रमाण और शेष बहुभाग १३ मिध्यादृष्टि राशिका प्रमाण हुआ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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