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________________ १, २, ३५.] दव्वपमाणाणुगमे तिरिक्खगदिपमाणपरूवणं [ २३१ कोडिसद-तेवीसकोडाकोडि-छत्तीसकोडिलक्ख-चउसडिकोडिसहस्सरूवेहि पदरंगुलमोवढेऊण तस्सुवरिमवग्गे भागे हिदे पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीमिच्छाइडिअवहारकालो होदि । एदं केसिंचि आइरियवक्खाणं पंचिंदियतिरिक्खमिच्छाइट्ठिजोणिणीअवहारकालपडिबद्धं ण घडदे । कुदो ? पुरदो वाणवेंतरदेवाणं तिण्णिजोयणसदअंगुलवग्गमेत्तअवहारकालो होदि त्ति वक्वाणदंमणादो । इदं वक्खागं असचं वाणवेंतरअवहारकालपमाणवक्खाणं सच्चमिदि कधं जाणिजदे ? णत्थि एत्थ अम्हाणमेयंतो, किंतु दोण्हं वक्खाणाणं मज्झे एकेण वक्खाणेण असच्चेण होदव्यं । अहवा दोण्णि वि वक्खाणाणि असच्चाणि, एसा अम्हाणं पइजा ।कधमेदं जाणिजदे ? 'पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीहिंतो वाण-तरदेवा संखेजगुणा, है। अथवा इकवीससौ कोड़ाकोड़ी, तेवीस कोड़ाकोड़ी, छत्तीस कोड़ी लाख, और चौसठ कोड़ी हजार प्रमाण संख्यासे प्रतरांगुलको अपवर्तित करके जो लब्ध आवे उसका प्रतरांगुलके उपरिम वर्गमें भाग देने पर पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल होता है। विशेषार्थ--एक योजनके चार कोस, एक कोसके दो हजार धनुष, एक धनुषके चार हाथ और एक हाथके चौवीस अंगुल होते हैं, इसलिये एक योजनके अंगुल करने पर १४४४ २०००४४४२४ = ७६८००० प्रमाण अंगुल आते हैं। ७६८००० को ६०० से गुणा कर देने पर ६०० योजनके ४६,०८,००००० प्रमाण अंगुल हो जाते हैं। ४६०८००००० संख्यातका वर्ग कर लेने पर २१,२३,३६,६४,०००००००००० प्रमाण प्रतरांगुल होते हैं। इनका भाग जरप्रतरमें देने पर पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिमती मिथ्याधियोंका प्रमाण आता है। पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिमतियोंके अवहारकालसे संबन्ध रखनेवाला यह कितने ही आचार्योंका व्याख्यान घटित नहीं होता है, क्योंकि, तीनसौ योजनोंके अंगुलोंका वर्गमात्र व्यंतर देवोंका अवहारकाल होता है, ऐसा आगे व्याख्यान देखा जाता है। शंका-यह पूर्वोक्त पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिमतियोंके अवहारकालका व्याख्यान असत्य है और वाणव्यंतर देवोंके अवहारकालके प्रमाणका व्याख्यान सत्य है, यह कैसे जाना जाता है? समाधान-इस विषयमें पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमतीसंबन्धी अवहारकालका व्याख्यान असत्य ही है और व्यन्तर देवोंके अवहारकालका व्याख्यान सत्य ही है, ऐसा कुछ हमारा एकान्त मत नहीं है, किंतु हमारा इतना ही कहना है कि उक्त दोनों व्याख्यानोंमेंसे कोई एक व्याख्यान असत्य होना चाहिये। अथवा, उक्त दोनों ही व्याख्यान असत्य हैं, यह हमारी प्रतिज्ञा है। शंका-उक्त दोनों व्याख्यान असत्य हैं, अथवा, उक्त दोनों व्याख्यानों से एक छहिं अंगुलेहि वादो वेवादेहिं विहत्थिणामा य । दीणि विहत्थी हत्या वेहत्थेहिं हवे रिक्कू ॥ रिक्कृहिं दंडो दंडसमा जुगधगृणि मुसलं वा। तस्स तहा णाली दोदंडसहस्सयं कोसं ॥ चउकोसेहिं जोयण xx| ति. प. पत्र ५। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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