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________________ २३२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, २, ३५. तत्थेव देवीओ संखेजगुणाओ' एदम्हादो खुदाबंधसुत्तादो जाणिजदे । ण च सुत्तमप्पमाणं काऊण वक्खाणं पमाणमिदि वोत्तुं सकिञ्जदे, अइप्पसंगादो। ण च एकेकस्स देवस्स एक्का चेव देवी होदि ति जुत्ती अत्थि, भवणादियाणं' भूओदेवीणमागमेणोवलंभादो देवेहितो देवीओ वत्तीसगुणाओं त्ति वक्खाणदंसणादो च । तम्हा जदि वाण-तरदेवअवहारकालो तिणिजोयणसदअंगुलबग्गमेतो ति णिच्छ ओ अस्थि तो जोणिणीअवहारकालमुप्पायणटुं तिण्णिजोयणसदअंगुलवग्गम्हि वत्तीसोत्तरसदपहुडि जिणदिभावो गुणगारो पवेसेयव्यो । अध जोणिणीअवहारकालो छज्जोयणसदगुलवग्गमेत्तो त्ति णिण्णओ अत्थि तो वाणवेंतरअवहारकालमुप्पायणटुं छज्जोयणंसदंगुलवग्गो तेत्तीसपहुडि जिणदिट्ठभावसंखेज्जरूवेहि ओवट्टेयव्वं । अहवा उभयत्थ वि पदरंगुलस्स तप्पाओग्गो गुणगारो दादव्यो। ____एत्थ खंडिदादिविहिं वत्तइस्सामो। तं जहा- पदरंगुलउवरिमवग्गे पदरंगुलस्स व्याख्यान तो असत्य है ही, यह कैसे जाना जाता है ? समाधान-'पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमतियोंसे वाणव्यन्तर देव संख्यातगुणे है और उनकी देवियां वाणव्यन्तर देवोंसे संख्यातगुणी हैं। इस खुदाबंधके सूत्रसे उक्त अभिप्राय जाना जाता है। सूत्रको अप्रमाण करके उक्त व्याख्यान प्रमाण है, ऐसा तो कहा नहीं जा सकता है, अन्यथा, अतिप्रसंग दोष आ जायगा। यदि एक एक देवके एक एक ही देवी होती है, यह युक्ति दी जाय सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि, भवनवासी आदि देवोंके बहुतसी देवियोंका आगममें उप देश पाया जाता है। और 'देवोंसे देवियां बत्तीसगुणी होती हैं। ऐसा व्याख्यान भी देखा जाता है। इसलिये वाणव्यन्तरदेवोंका अवहारकाल तीनसौ योजनोंके अंगलोंका वर्गमात्र है, यदि ऐसा निश्चय है तो पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिमतियोंके अवहारकालके उत्पन्न करनेके लिये तीनसो योजनके अंगुलोंके वर्गमें जो राशि जिनदेवने देखी हो तदनुसार वत्तीस अधिक सौ आदि रूप गुणकारका प्रवेश कराना चाहिये । अथवा, 'पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमतियोंका अवहारकाल छहसौ योजनोंके अंगुलोंका वर्गमात्र है। यदि ऐसा निश्चय है तो वाणव्यंतर देवोंका अवहार. काल उत्पन्न करनेके लिये तेतीस आदि जो संख्या जिनेन्द्रदेवने देखी हो उससे छहसौ योजनोंके अंगुलोंके वर्गको अपवर्तित करना चाहिये। अथवा, वाणव्यन्तर और पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती, इन दोनोंके अवहारकालोंके लिये दोनों स्थानों में भी प्रतरांगुलके उसके योग्य गुणकार दे देना चाहिये। अब यहां खंडित आदिककी विधिको बतलाते हैं। वह इसप्रकार है-प्रतरांगुलके उपरिम वर्गके प्रतरांगुलके संख्यातवें भागमात्र संड करने पर उनसे एक खंड प्रमाण १ प्रतिषु 'अणादियादीण' इति पाठः । २ इगिपुरिसे बत्तीसं देवी। गो. जी. २७८. ३ प्रतिषु तिण्णिजोयण' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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