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________________ १६८ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, २, १९. स्थानमें अंकरूपसे १२, १० आदि संख्याओंका ग्रहण किया है । तथा अंशके स्थानमें १ अंक ग्रहण करके यह बतलाया है कि १ में बारहवें आदि वर्गमूलोंका भाग देनेसे सामान्य विष्कंभसूचीमें अपनीयमान संख्या आ जाती है। पर इससे यहां बारह वर्गमूलका प्रमाण १२ और दशवें वर्गमूलका प्रमाण १० आदि नहीं लेना चाहिये। ये १२, १० आदि अंक तो केवल अनुरूप संख्यांकोंके द्वारा उक्त वर्गमूलोंका शान करानेके लिये संकेतमात्र हैं । इसीप्रकार इसी प्रकरणमें प्रकृत विषयके स्पष्ट करने के लिये अंकसंदृष्टिकी अपेक्षा जगश्रेणीका प्रमाण ६५५३६ लिया है, उसके भी ये १२, १० आदि अंक बारहवें और दशवें आदि वर्गमूल नहीं हैं, जो द्वितीयादि पृथिधियोंके अंकसंदृष्टिकी अपेक्षा दिये गये अवहारकालोंसे स्पष्ट समझमें आ जाता है । यद्यपि ६५५३६ के पहले, दूसरे, तीसरे और चौथे वर्गमूलको छोड़कर शेष सभी वर्गमूल करणीगत होते हैं, फिर भी वीरसेनस्वामीने वर्गमूलोंके परस्परके तारतम्यको ग्रहण न करके द्वितीयादि नरकोंमें नारक जीवोंकी उत्तरोत्तर हीन संख्याका परिज्ञान करानेके लिये बारहवें वर्गमूलके स्थानमें ४, दशवेंके स्थानमें ८, आठवेंके स्थानमें १६, छठवेंके स्थानमें ३२, तीसरेके स्थानमें ६४ और दूसरेके स्थानमें १२८ लिया है । इस प्रकरणमें उदाहरण देकर जीवराशि आदिकी जो संख्या निकाली है वह पूर्वोक्त आधार पर ही निकाली गई है । इससे बारहवें वर्गमूल आदिमें परस्पर जितना तारतम्य है वह उक्त संकेतरूप संख्यांकों में नहीं रहता है, और इसलिये कहीं कहीं दृष्टान्त और दार्टीतमें अन्तर प्रतीत होता है । जैसे, आगे चलकर छठी और सातवीं पृथिवीका मिला हुआ जो भागहार निकाला है उस प्रकरणमें उपरिम विरलन भी जगश्रेणीका तृतीय वर्गमूलप्रमाण है और अधस्तन विरलन भी उतना ही है। पर वर्गमूलोंके उक्त संख्यांकोंके अनुसार वहां उपरिम विरलन ६४ प्रमाण और अधस्तन विरलन २ संख्याप्रमाण ही आता है, क्योंकि, अंकों के द्वारा मानी हुई सातवी पृथिवीकी जीवराशि ५१२ रूप प्रमाणका छठी पृथिवीके द्रव्य १०२४ में भाग देने पर २ ही लब्ध आते हैं। वर्गमूलों में परस्पर जो तारतम्य है वह इन संकेतोंमें नहीं रहनेसे ही यहां दृष्टान्त और दार्टान्तमें इसप्रकारका वैषम्य दिखाई देता है। पर यदि हम वर्गमूलोंके तारतम्यको लेकर अंकसंदृष्टि जमावे तो मुख्यार्थसे दृष्टान्तमें कोई अन्तर नहीं पड़ सकता है। फिर भी दृष्टान्त एकदेश होता है इसी न्यायके अनुसार ही यहां अंकसंदृष्टिसे दान्तिको समझना चाहिये। इससे जहां कहीं दृष्टान्तसे दार्टान्तका साम्य नहीं मिलता होगा वहां दृष्टान्तमें ग्रहण किये गये अंकोंमें अपेक्षित तारतम्यका अभाव ही कारण है, दार्टान्तमें कोई दोष नहीं। यह बात निम्नकोष्ठकसे अतिशीघ्र समझमें आ जायगी ६५५३६ के वर्गमूल बारहवां दशवां आठवां छठा तीसरा दूसरा विष्कंभसूची धवलाकार द्वारा माने १२८ । ६४ ३२ १६ ८ ४ गये संकेतांक ६५५३६ % २१६ के ___ बारहवें वर्गमूलसे निश्चित वर्गमूल नीचे जाकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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