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________________ १, २, १९.] दव्वपमाणाणुगमे णिस्यगदिपमाणपरूवणं पमाणं सेढिदसम-अट्ठ-छट्ठ-तदिय-विदियवग्गमूलेहि पुध पुध एगरूवं खंडिदे तत्थ एगभागं होदि । विदियादिपुढवीणं एदे अवहारकाला होति त्ति कधं णवदे ? वारस दस अट्ठेव य मूला छत्तिय दुगं च णिरएसु । एक्कारस णव सत्त य पण य चउक्कं च देवेसु ॥ ६६॥ पदम्हादो आरिसादो णव्वदे। तेसिमंकवणा एसा १२ १ १३। सेढिवारस प्रमाण क्रमसे जगश्रेणीके दशवें, आठवें, छठवें, तीसरे और दूसरे वर्गमूलोंसे पृथक् पृथक् एक संख्याको खंडित करने पर यहां जो एक भाग लब्ध आवे उतना होता है। उदाहरण-दशवां वर्गमूल ८, आठवां वर्गमूल १६, छठा वर्गमूल ३२, तीसरा वर्ग मूल ६४, दूसरा वर्गमूल १२८, १ : ८ = ? तीसरी पृथिवीकी अपेक्षा । १६ १६ = चौथी पृथिवीकी अपेक्षा । १ : ३२३ पांचवी पृथिवीको अपेक्षा । १ : ६४ = १. छठी पृथिवीकी अपेक्षा । १२ १२८ = १ सातवीं पृथिवीकी अपेक्षा अपनीयमान संख्याका प्रमाण । शंका- जगश्रेणीका बारहवां वर्गमूल, दशवां वर्गमूल आदि ये सब द्वितीयादि पृथिवियोंके अवहारकाल होते हैं, यह कैसे जाना जाता है ? । समाधान-नरकमें द्वितीयादि पृथिवीसंबन्धी द्रव्य लानेके लिये जगश्रेणीका बारहवां, दशवां, आठवां, छठा, तीसरा और दूसरा वर्गमूल क्रमसे अवहारकाल होता है। तथा देवों में (सानत्कुमार आदि पांच कल्पयुगलोंका प्रमाण लानेके लिये) जगश्रेणीका ग्यारहवां, नौवां, सातवां, पांचवां और चौथा वर्गमूल क्रमसे अवहारकाल होता है ॥६६॥ इस आर्ष वचनसे जाना जाता है कि उपर्युक्त वर्गमूल द्वितीयादि पृथिवियोंके द्रव्य लाने के लिये अवहारकाल होते हैं। उन अपनीयमान अंकोंकी स्थापना क्रमसे १३, १०, ११, ३, इसप्रकार है। विशेषार्थ- यहां पर जगश्रेणीके बारहवें वर्गमूल आदिका शान करनेके लिये हरके १ प्रतिषु ' दुपंच ' इति पाठः । २ सणक्कुमार जाव सदरसहस्सारकापवासियदेवा सत्तमपुढवीमंगो। कुदो ? सेदीए असंखेजभागक्षण एदेसि तत्तो भेदाभावादो। विसेसदो पुण मेदो अत्थि, सेढीए एकारस-णवम-सत्तम-पंचम-चउत्थवग्गमूलाणं जहाकमेण सेढीमागहाराणमेत्थुवलंभादो । धवला. पत्र ५२२. अ.। सौधर्मद्वये किंचिदूना घनांगुलतृतीयमूलजगणिः । सनत्कुमारद्वयादिपंचयुग्मेषु किंचिदूना क्रमशो निजैकादशम-नवम-सप्तम-पंचम चर्तुथमूलभक्तजगश्रेणिः । ऊनता चात्र हाराधिका शेया। गो. जी., जी. प्र., टी ६४१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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