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१, २, ४.] दव्वपमाणाणुगमे मिच्छाइट्ठिपमाणपरूवर्ण
[ ३५ तिण्हं वादवलयाणं वाहिरभागे । तं कधं जाणिज्जदि ? ' लोगो वादपदिद्विदो' त्ति वियाहपण्णत्तीवयणादो । सयंभुरमणसमुद्दबाहिरवेदियाए परदो केत्तियमद्धाणं गंतूण तिरियलोगसमत्ती होदि ति भणिदे असंखेज्जदीवसमुद्दरुंदरुद्धजोयणेहितो संखेज्जगुणाणि गंतूण होदि । एदं कुदो णव्यदे ? जोइसियाणं वेछप्पणंगुलसदवरगमेत्तभागहारपरूवयसुत्तादो',
करनेसे (पहले मतके अनुसार) दुसरा अर्धच्छेद स्वयंभूरमण समुद्र में, तीसरा अर्धच्छेद स्वयंभूरमण द्वीपमें, इसप्रकार एक एक अर्धच्छेद उत्तरोत्तर एक एक द्वीप और एक एक समुद्र में पड़ता है। किंतु लवण समुद्र में दो अर्धच्छेद पड़ेंगे। उनमें से पहला डेढलाख योजन भीतर जाकर और दुसरा पचास हजार योजन भीतर जाकर पड़ता है। इनमेंसे दूसरा अर्धच्छेद जस्तूपिका मान लेने पर जितने द्वीप और समुद्र है उतने अर्धच्छेदोंका प्रमाण आ जाता है । अन्तमें पचास हजार योजन लवण समुद्रके और इतने ही योजन जम्बूद्वीपके अवशिष्ट रहते हैं । इनको मिला देने पर एक लाख योजन होता है। इस एक लाख योजनके १७ अर्धच्छेद करने पर एक योजन अवशिष्ट रहता है, जिसके १९ अर्धच्छेद करनेके बाद एक सूच्यंगुल शेष रहता है । पल्यके अर्धच्छेदोंके वर्ग प्रमाण एक सूच्यंगुलके अर्धच्छेद होते हैं। इसप्रकार पहले मतके अनुसार जितने द्वीप और समुद्र है उनकी संख्यामें १+१७+१९-३७ अर्धच्छेद अधिक पल्यके अर्धच्छेदोंके वर्ग प्रमाण अर्धच्छेद मिला देने पर रज्जुके कुल अर्धच्छेद होते हैं। तथा दूसरे मतके अनुसार इस संख्यामें संख्यात और मिला देने पर रज्जुके संपूर्ण अर्धच्छेद होते हैं, क्योंकि, इस मतके अनुसार संख्यात अर्धच्छेद् हो जानेके बाद स्वयंभूरमण समुद्र में अर्धच्छेद प्राप्त होता है।
शंका-तिर्यग्लोकका अन्त कहां पर होता है ? समाधान-तीनों वातवलयों के बाह्य भागमें तिर्यग्लोकका अन्त होता है। शंका-यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान- 'लोक वातवलयोंसे प्रतिष्ठित है' इस व्याख्याप्रज्ञप्तिके वचनसे जाना जाता है कि तीनों वातवलयों के बाह्य भागमें लोकका अन्त होता है।
स्वयंभूरमण समुद्रकी बाह्य वेदिकासे उस ओर कितना स्थान जाकर तिर्यग्लोककी समाप्ति होती है ऐसा पूछने पर आचार्य उत्तर देते हैं कि असंख्यात द्वीपों और समुद्रोंके व्याससे जितने योजन रुके हुए हैं उनसे संख्यात् गुणा जाकर तिर्यग्लोककी समाप्ति होती है।
शंका-यह किससे जाना जाता है ? समाधान- ज्योतिषी देवोंके दोसौ छप्पन अंगुलोंके वर्गमात्र भागहारके प्ररूपक
१ भजिदम्मि सेदिवग्गे वेसयछप्पणअंगुलकदीए। जं लद्धं सो रासी जोदिसियसुराणं सव्वाण । ति. प. पत्र २०१. तिण्णिसयजोयणाणं बेगदछप्पणअंगुलाणं च । कदिहिदपदरं वेंतरजोइसियाणं च परिमाणं ॥ गो. जी. १६०. बेछपगंगुलसयवग्गपलिभागो पयरस्स । अनु. सू. १४२. पृ. १९२.
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