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________________ ३६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, २, ४. (दुगुणदुगुणो दुवग्गो णिरंतरो तिरियलोगे' त्ति तिलोयपण्णत्तिसुत्तादो य णयदे ण च ऐदै वक्खाणं जत्तियाणि दीवसागररूवाणि जंबूदीवछेदणाणि च रूवाहियाणि त्ति परियम्मसुत्तेण सह विरुज्झइ, रूवेहि अहियाणि रूवाहियाणि ति गहणादो। अण्णाइरियवक्खाणेण सह विरुज्झदि त्ति ण, एदस्स वक्खाणस जं भद्दत्तं तेण वक्खाणाभासेण विरुद्धदाए एदस्स समवट्ठाणादो । तं वक्खाणाभासमिदि कुदो णव्वदे ? जोइसियभागहारसुत्तादो चंदाइचबिंबपमाणपरूवयतिलोयपण्णत्तिसुत्तादो' च । ण च सुत्तविरुद्धं वक्वाणं होइ, अइप्पसंगादो। किं च ण तं वक्खाणं घडदे, तम्हि वक्खाणे अवलंबिज्जमाणे सेढीए सत्तमभागम्हि अहसुण्णदंसणादो। ण च सेढीए सत्तमभागम्हि अट्ठसुण्णओ अत्थि, तदत्थित्तविहाययसुत्ताणुवलंभादो । तदो तत्थ असुणविणासणर्टी केत्तिएण वि रासिणा सूत्रसे और 'तिर्यग्लोकमें दोके वर्गसे लेकर उत्तरोत्तर दुना दुना है' इस त्रिलोकप्रशप्तिके सूत्रसे जाना जाता है कि असंख्यात द्वीपों और समुद्रोंके व्याससे रुके हुए क्षेत्रसे संख्यातगुणा आकर तिर्यग्लोककी समाप्ति होती है। और यह व्याख्यान 'जितने द्वीपों और सागरोंकी संख्या है और जम्बूद्वीपके रूपाधिक जितने छेद हैं उतने रज्जुके अर्धच्छेद हैं । परिकर्म सूत्रके इस व्याख्यानके साथ भी विरोधको प्राप्त नहीं होता है, क्योंकि, वहां पर रूपले अधिक अर्थात् एकसे अधिक ऐसा ग्रहण न करके रूपसे आधिक अर्थात् बहुत प्रमाणसे अधिक ऐसा ग्रहण किया है। शंका- यह व्याख्यान अन्य आचार्यों के व्याख्यानके साथ तो विरोधको प्राप्त होता है? समाधान - नहीं, क्योंकि, यह व्याख्यान जिसलिये संगत है इसलिये दूसरे ध्याख्यानाभासोंसे इसके विरुद्ध पड़ने पर भी यह व्याख्यान प्रमाणरूपसे अवस्थित ही रहता है। शंका-अन्य आचार्योंका व्याख्यान व्याख्यानाभास है यह कैसे जाना जाता है ? समाधान- ज्योतिषियोंके भागहारके प्ररूपक सूत्रसे और चन्द्र तथा सूर्यके बिम्बोंके प्रमाणके प्ररूपक त्रिलोकप्रक्षप्तिके सूत्रसे जाना जाता है कि पूर्वोक्त व्याख्यानके विरुद्ध जो अन्य आचार्योंका व्याख्यान पाया जाता है वह व्याख्यानाभास है। और सूत्रविरुद्ध व्याख्यान ठीक नहीं कहा जा सकता है, अन्यथा अतिप्रसंग दोष आ जायगा। तथा वह अन्य आचार्योंका व्याख्यान घटित भी तो नहीं होता है, क्योंकि, उस व्याख्यानके अवलम्बन करने पर जगच्छेणीके सप्तम भागका जो प्रमाण बतलाया है उसके अन्तमें आठ शून्य दिखाई देते हैं। परंतु जगच्छेणीके सप्तम भागरूप प्रमाणमें अन्तके आठ शून्य नहीं पाये जाते हैं, क्योंकि, अन्तमें आठ शून्योंके अस्तित्वका विधायक कोई सूत्र नहीं पाया जाता है। इसलिये १ अट्ठच उदुतितिसत्तासत यहाणेसु णव सुण्णाणि । छत्तीससत्तदुणवअट्ठा तिचउका होति अंककमा एदेहि गुणिदसंखेन्जरूवपदरंगुलेहिं भजिदाए। सेठिकदीए लहूं माणं चंदाण जोइसिंदाणं ॥ तेत्तियमेत्ताणि रविणो इवति ॥ १२, १३, १४॥ ति. प. पत्र २०१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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