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________________ ३४ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, २, ४. णाम ? तिरियलोगस्स मज्झिमवित्थारो । कधं तिरियलोगस्स रुंदत्तणमाणिज्जदे ? जत्तियाणि दीवसागररूवाणि जंबूदीवच्छेदणाओ च रूवाहियाओ केसि च आइरियाणमुवएसेण संखेज्जरूवाहियाओ विरलिय विगं करिय अण्णोण्णब्भत्थरासिणा छिण्णाविसिष्टुं गुणिदे रज्जू णिप्पज्जदि । एसो एति सेढीए सत्तमभागो' (कम्मि तिरियलोगस्स पज्जवसाणं ? शंका-रज्जु किसे कहते हैं ? समाधान-तिर्यग्लोकके मध्यम विस्तारको रज्जु कहते हैं। शंका-तिर्यग्लोककी चौड़ाई कैसे निकाली जाती है ? समाधान-- जितना द्वीपों और सागरोंका प्रमाण है उनको तथा एक अधिक जम्बूद्वीपके छेदोंको विरलित करके तथा उस विरलित राशिके प्रत्येक एकको दोरूप करके परस्पर गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो उससे, अर्धच्छेद करने के पश्चात् अवशिष्ट राशिको गुणित कर देने पर रज्जुका प्रमाण उत्पन्न होता है। अथवा, कितने ही आचार्योंके उपदेशसे जितना द्वीपों और सागरोंका प्रमाण है उसको और संख्यात अधिक जम्पद्वीपके छेदोंको विरलित करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकको दोरूप करके परस्पर गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो उससे, छेद करनेके पश्चात् अवशिष्ट राशिको गुणा कर देने पर रज्जुका प्रमाण उत्पन्न होता है । यह जगच्छ्रेणीका सातवां भाग आता है। विशेषार्थ- रज्जुके विषय में दो मत पाये जाते हैं। कितने ही आचार्योका ऐसा मत है कि स्वयंभूरमण सनद्रकी बाह्य वेदिका पर जाकर रज्जु समाप्त होती है। तथा कितने ही आचार्योंका ऐसा मत है कि असंख्यात द्वीपों और समुद्रोंकी चौड़ाईसे रुके हुए क्षेत्रसे संख्यात. गुणे योजन जाकर रज्जुकी समाप्ति होती है। स्वयं वीरसेन स्वामीने इस दूसरे मतको अधिक महत्व दिया है। उनका कहना है कि ज्योतिषियों के प्रमाणको लानेके लिये २५६ अंगुलके वर्ग प्रमाण जो भागहार बतलाया है उससे यही पता चलता है कि स्वयंभूरमण समुद्रसे संख्यातगुणे योजन जाकर ही मध्यलोककी समाप्ति होती है। इन दोनों मतोंके अनुसार रज्जुका प्रमाण निकालनेके लिये रज्जुके जितने अर्धच्छेद हों उतने स्थानपर २ रख. कर परस्पर गुणा करके जो लब्ध आवे उसका अर्धच्छेद करनेके अनन्तर जो भाग अवशिष्ट रहे उससे गुणा कर देना चाहिये । इसप्रकार करनेसे रज्जुका प्रमाण आ जाता है। जितने द्वीप और समुद्र हैं उनमें एक अधिक या संख्यात अधिक जम्बूद्वीपके अर्धच्छेद मिला देने पर रज्जुके अर्धच्छेद हो जाते हैं । इनके निकालनेकी प्रक्रिया इसप्रकार है ___ मध्यसे रज्जुके दो भाग करना चाहिये, यह प्रथम अर्धच्छेद है। अनन्तर आधा आधा १ जगसेढीए सत्तमभागो रज्जू य भासंते । ति. प. पत्र ६. जगसेढिसत्तभागो रज्जू । त्रि. सा. ७. उद्धारसागराणं अडाइज्जाण जत्तिया समया । दुगुणादुगुणपवित्थर-दीवोदहि रज्जु एवइया ॥ बृ. क्षे. १, ३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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