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________________ १४ ] छक्वंडागमे जीवट्ठाण [ १, २, २. भेदाभावादो ण तत्थ आधाराधेयभावो । अह जइ एत्थ वि आधाराधे यभावो होज्ज, जाणुगसरीरभवियाणं पुणरुत्तदा ढुकेज्जेत्ति । जदि एवं, तो एदं परिहरिय धणुसदे भुंजदीदि एदं गहेयव्यं । न धनुर्धतायामेवायं व्यवहारः, धनुष्यपसार्य भुंजानेष्वपि धनुःशतं भुंक्त इति व्यवहारदर्शनात् । न घृतकुम्भदृष्टान्तो घटते, घटस्य घृतव्यपदेशानुपलम्भतो दृष्टान्तदाष्ट्रान्तिकयोः साधाभावात् । जंतं भवियाणंतं तं अणत पाया जाता है। फिर भी यदि यहां भी आधार-आधेयभाव माना जाये तो शायकशगर और भावी इन दोनोंके कथनमें पुनरुक्तता प्राप्त हो जायगी ? समाधान--- यदि ऐसा है तो इस दृष्टान्तको छोड़कर ‘सौ धनुष (सौ धनुषवाले) भोजन करते हैं। प्रकृतमें इस दृष्टान्तको लेना चाहिये। धनुपोंके धारण करनेरुप अवस्था ही सौ धनुष भोजन करते हैं यह व्यवहार नहीं होता है किंतु धनुषोंको दुर करके भोजन करनेवालोंमें भी 'सौ धनुष भोजन करते हैं' इसप्रकार व्यवहार देखा जाता है। किन्तु यहां पर घृतकुम्भका दृष्टान्त लागू नहीं होता है, क्योंकि, घटके घृत इसप्रकारका व्यवहार नहीं पाया जाने के कारण दृष्टान्त और दार्टान्तमें साधर्म्य नहीं है। विशेपार्थ-नोआगमद्रव्यनिक्षेपके तीन भेद किये हैं, शायकशरीर, भावी और तद्वयतिरिक्त । इनमेंसे ज्ञायकशरीरमें ज्ञाताका त्रिकालभावी शरीर लिया जाता है और भावी में जो वर्तमानमें ज्ञाता नहीं है किंतु आगे होगा उसका ग्रहण किया जाता है। अब यदि जो पर्याय पहले हो चुकी है या आगे होगी उसे ही शायकशरीरका अतीत और भावी मान लें तो शायकशरीरभावी नोआगमद्रव्यमें और भावी नोआगमद्रव्यमें कोई अन्तर नहीं रह जायगा । इसलिये ज्ञायकशरिमें संबन्धप्राप्त भिन्न आधारमें आधेयका उपचार किया जाता है और भावीमें वही वस्तु आगे होनेवाली पर्यायरूपसे कही जाती है ऐसा समझना चाहिये । यद्यपि ऊपर आधारमें आधेयका उपचार दिखानेके लिये ' असिसदं चावदि ' इत्यादि दृष्टान्त दे आये हैं जिससे यह समझ में आ जाता है कि जिसप्रकार तरवारधारी सौ पुरुपोंके दौड़नेपर सौ तरवारें दौड़ती है इत्यादि रूपसे व्यवहार होता है उसीप्रकार अनन्त आदि विषयक शास्त्रके ज्ञाताके शरीरको भी नोआगमद्रव्यानन्त आदि कह सकते हैं। परंतु जो शरीर अभी प्राप्त नहीं हुआ है या प्राप्त होगा उसे कैसे नोआगमद्रव्यानन्त आदि कह सकते हैं, क्योंकि, उपचार संबद्ध पदार्थमें होता है। इसका समाधान यह है कि जिसप्रकार धनुषोंको दूर रखकर भोजन करने पर भी 'धणुसदं भुंजदि' यह व्यवहार बन जाता है, उसीप्रकार अतीत और अनागत शरीरकी अपेक्षा भी उपचारसे आधार-आधेयभाव मान कर नोआगमद्रव्यानन्त आदि संज्ञा बन जाती है। प्रकृतमें घृतकुम्भका दृष्टान्त इसलिये लागू नहीं होता है कि घर में घी इसमकारका व्यवहार नहीं होनेसे वहां आधार-आधेयभापकी संभावना ही नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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