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________________ १, २, २. ] दवमाणागमे मिच्छाइट्टि पमाणपरूवणं [ १३ वगमानां अवगमिष्यतां वा किमिति द्रव्यागमव्यपदेशो न स्यादिति चेन्न, शक्तिरूपोपयोगस्य श्रुतावरणक्षयोपशमलक्षणस्य साम्प्रतं तत्रासच्वात् । आगमादण्णो णोआगमो । जं तं णोआगमद दव्वातं तं तिविहं, जाणुगसरीरदव्याणंतं भवि यदव्त्राणंतं तव्त्रदिरित्तदव्या चेदि । तत्थ जाणुगसरीरदव्वाणंतं अनंतपाहुडजाणुगसरीरं तिकालजादं । कथं अणतपाहुडादो आधार तणेण वदिरित्तस्स सरीरस्स अणंतववएसो ! ण, असिसदं धावदि परसुखदं धावदि इचेवमादिसु तदो वदिरित्तस्स वि आधारपुरुसस्स आधेयववदेसदसदो। भवदु वट्टमाणम्हि आधारस्स आधेयोवयारो णादीदाणागदकालेसु त्तिण एस दोसो, - भविस्सरज्जम्हि वि पुरिसे राया आगच्छदित्ति ववहारदंसणादो । पज्जयपज्जइणो आगमद्रव्यानन्त कहते हैं । शंका -- जिनको पहले ज्ञान था किंतु पश्चात् विस्मृत हो गया है, अर्थात् छूट गया है अथवा जो भविष्यकाल में जानेंगे उन्हें भी द्रव्यागम यह संज्ञा क्यों न दी जाय ? समाधान -- नहीं, क्योंकि, श्रुतज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम है लक्षण जिसका ऐसा शक्तिरूप उपयोग वर्तमानमें उन जीवोंके नहीं पाया जाता है, इसलिये उन्हें द्रव्यागम यह संज्ञा नहीं प्राप्त सकती है। आगमसे अन्यको नोआगम कहते हैं । वह नोआगम द्रव्यानन्त तीन प्रकारका है, शायक शरीर नो आगमद्रव्यानन्त, भव्य नो आगमद्रव्यानन्त और तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यानन्त । उनमें से, अनन्तविषयक शास्त्रको जाननेवालेके तीनों कालोंमें होनेवाले शरीरको ज्ञायकशरीर नोआगमद्रव्यानन्त कहते हैं । शंका- अनन्तविषयक शास्त्र अर्थात् अनन्तविषयक शास्त्रका ज्ञाता आधेय है और उसका शरीर आधार है, अतएव अनन्तविषयक शास्त्र के ज्ञातासे आधारतया शरीर भिन्न है, इसलिये उस शरीरको अनन्त यह संज्ञा कैसे प्राप्त हो सकती है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, सौ तरवारें ( सौ तरवारवाले ) दौड़ती हैं, सौ फरसा ( सौ फरसावाले ) दौड़ते हैं इत्यादि प्रयोगों में तरवार और फरसासे भिन्न परंतु उनके आधारभूत पुरुषों में भी जिसप्रकार आधेयरूप तरवार और फरसा यह संज्ञा देखी जाती है, सीप्रकार प्रकृतमें भी आधारभूत शरीर में आधेयका व्यवहार जान लेना चाहिये । - शंका - वर्तमान कालमें आधारभूत शरीरमें आधेयका उपचार भले ही हो जाओ, परंतु अतीत और अनागतकालीन शरीरोंमें यह व्यवहार नहीं हो सकता है ? समाधान -- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, जिसकी राजारूप पर्याय नष्ट हो गई है, अथवा जिसे भविष्य में राजारूप पर्याय प्राप्त होगी, ऐसे पुरुषमें भी जिसप्रकार 'राजा आता है' यह व्यवहार देखा जाता है, उसीप्रकार प्रकृतमें भी समझ लेना चाहिये । शंका - पर्याय और पर्यायीमें भेद न होने के कारण वहां पर आधार-आधेयभाव नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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