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________________ १० ] डागमे जीवाणं [ १, २, २. विवक्षितत्वात् । आदेसेण, आदेशः पृथग्भावः पृथकरणं विभजनं विभक्तीकरणमित्यादयः पर्यायशब्दाः । गत्यादिविभिन्न चतुर्दश जीवसमासप्ररूपणमादेशः । णिसो' इदि कट्टु आदेसं थप्पं काढूण ओघपरूवणमुत्तरमुत्तं भणदि 6 जहा उद्देसो तहा ओघेण मिच्छाही व्वपमाणेण केवडिया, अनंता ॥ २ ॥ ओघसद्दुच्चारणाभावे ओघादेसपरूवणासु कदमेसा परूवणेत्ति सोदारस्स चित्तं मा घुलिसदिति तच्चित्तस्स थिरतुप्पायण ओघेणेत्ति भणिदं । मिच्छादिट्टिग्गहणाभावे कदमस्त जीवसमासस्स इमा परूवणा इदि सोदारस्स संदेहो होज्ज, तस्स संदेहुप्पत्तिनिवारण मिच्छादिट्टिग्गहणं कदं । दव्त्रयमाणेणेत्ति अभणिय केवडिया इदि सामणेण पुच्छिदे इमा पुच्छा किं व्यवितया, किं खेत्तविसया, किं कालविसया, किंवा भावविसया, इदि संदेहो होज्ज; तणिवारणई दन्यपमाणगहणं कई । केवडिया इदि पुच्छा । संपूर्ण जीवराशिके कथन करनेकी विवक्षा नहीं की गई है । आदेश से कथन करनेको आदेशनिर्देश कहते हैं। आदेश, पृथग्भाव, पृथक्करण, विभजन, विभक्तीकरण इत्यादिक पर्यायवाची शब्द हैं। आदेशनिर्देशका प्रकृतमें स्पष्टीकरण इसप्रकार है कि गति आदि मार्गणाओंके भेदोंसे भेदको प्राप्त हुए चौदह गुणस्थानों का प्ररूपण करना आदेशनिर्देश है । ' उदेशके अनुसार निर्देश करना चाहिये ' ऐसा समझकर आदेशको स्थगित करके पहले ओघनिर्देशका प्ररूपण करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं ओघसे मिध्यादृष्टि जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं, अनन्त हैं ॥ २ ॥ ओघ शब्दके उच्चारण नहीं करने पर ओघ और आदेश प्ररूपणाओंमेंसे 'यह कौनसी प्ररूपणा है ' इसप्रकार श्रोताका चित्त मत घुले, इसलिये उसके चित्तकी स्थिरता उत्पन्न करनेके लिये सूत्रमें 'ओघसे' यह पद कहा है । सूत्रमें मिथ्यादृष्टि पदके ग्रहण नहीं करने पर श्रोताको संदेह हो सकता है, इसलिये मिथ्यादृष्टि पदका ग्रहण किया है । सूत्रमें द्रव्यप्रमाणसे' इस पदको न कहकर ' कितने हैं' इसप्रकार सामान्यसे पूछने पर यह पृच्छा क्या द्रव्यविषयक है, क्या क्षेत्रविषयक है, क्या कालविषयक है, अथवा क्या भावविषयक है, प्रकारका सन्देह हो सकता है, अतः उस सन्देहके निवारणार्थ सूत्र में 'द्रव्यप्रमाण ' पदको ग्रहण किया है । 'कितने हैं' यह पद प्रश्नरूप है । कौनसे जीवसमास की यह प्ररूपणा है इसप्रकार उसकी सन्देहोत्पत्ति के निवारण करनेके लिये सूत्रमें ★ १ सामान्येन तावत् जीवा मिथ्यादृष्टयोऽनन्तानन्ताः । स. सि. मिच्छाइडी पावाणंताणंता ॥ गी. जी. ६२३. मिच्छाता । पञ्चसं. २, ९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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