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________________ १, २, २७. ] दव्यमाणागमे तिक्खिगदिपमाणपरूवणं [ २२१ मिच्छाइडिअवहार कालो होदि । अवहिदं गदं । तस्स पमाणं पदरंगुलस्स असंखेज्जदिभागो असंखेजाणि सूचिअंगुलाणि । पमाणं गदं । केण कारणेण ? सूचि अंगुलेण पदरंगुले भागे हिदे सूचिअंगुलमागच्छदि । सूविअंगुलपढमवग्गमूलेण पदरंगुले मागे हिदे सूचिअंगुल - पढमवग्गमूलम्हि जत्तियाणि रुवाणि तत्तियाणि सूचिअंगुलाणि लब्भंति । एवमसंखेज्जाणि गणाणि ट्ठा ओसरिऊण आवलियाए असंखेज्जदिभागेण पदरंगुले भागे हिदे असंखेज्जाणि सूचिअंगुलाणि आगच्छंति । कारणं गदं । आवलियाए असंखेज्जदिभागेण सूचिअंगुले भागे हिदे लद्धम्मि जत्तियाणि रूत्राणि तत्तियाणि सूचिअंगुलाणि । अहवा आवलियाए असंखेज्जदिभागेण सूचिअंगुलपढमवग्गमूलमवहरिय लद्वेण सूचिअंगुल - पढमवग्गमूलं चेव गुणिदे तत्थ जत्तियाणि रुवाणि तत्तियाणि सूचिअंगुलाणि पंचिदियतिरिक्खमिच्छाइट्ठिअवहारकालो होदि । एवं गंतूण आवलियाए असंखेज्जदिभागेण आलिया भागे हिदाए लद्वेण आवलियं गुणियं तदो पदरावलियं गुणिय एवं जाव सूचिअंगुलपढमवग्गमूलं ति निरंतरं सयलबग्गाणं अण्णोष्णवभत्ये कदे तत्थ जत्तियाणि अपहृत का कथन समाप्त हुआ। उस पंचेन्द्रिय तिर्येच मिथ्यादृष्टि अवहारकालका प्रमाण प्रतरांगुलके असंख्यातवें भाग है जो असंख्यात सूच्यंगुलप्रमाण होता है । इसप्रकार प्रमाणका वर्णन समाप्त हुआ । शंका - पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिध्यादृष्टि अवहारकालका प्रमाण असंख्यात सूच्यंगुल किस कारण से है ? समाधान - सूच्यंगुलसे प्रतरांगुलके भाजित करने पर एक सूच्यंगुलका प्रमाण आता | सूच्यंगुलके प्रथम वर्गमूलसे प्रतरांगुलके भाजित करने पर सूच्यंगुलके प्रथम वर्गमूलका जितना प्रमाण हो उतने सूच्यंगुल लब्ध आते हैं । इसीप्रकार असंख्यात वर्गस्थान नीचे जाकर आवली के असंख्यातवें भागसे प्रतरांगुल के भाजित करने पर असंख्यात सूच्यंगुल लब्ध आते हैं । इसप्रकार कारणका वर्णन समाप्त हुआ । आवलीके असंख्यातवें भागसे सूच्यंगुलके भाजित करने पर वहां जितना प्रमाण लब्ध आवे उतने सूच्यंगुलप्रमाण पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिध्यादृष्टि अवहारकाल है । अथवा, आवलीके असंख्यातवें भागसे सूच्यंगुलके प्रथम वर्गमूलको अपहृत करके जो लब्ध भावे उससे सूच्यंगुल के प्रथम वर्गमूलके गुणित करने पर जितना प्रमाण लब्ध आवे उतने सूच्यंगुलप्रमाण पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिध्यादृष्टि अवहारकाल है । इसीप्रकार असंख्यात वर्गस्थान नीचे जाकर आवलीके असंख्यातवें भागसे आवलीके भाजित करने पर जो लब्ध आवे उससे आवलीको गुणित करके पुनः उस गुणित राशिले प्रतरावलीको गुणित करके इसीप्रकार सूच्यंगुल के प्रथम वर्गमूलपर्यंत संपूर्ण वर्गोंके निरन्तर परस्पर गुणित करने पर यहां जितना प्रमाण लब्ध आवे उतने सूच्यंगुल आते हैं और यही पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टि अवहारकाल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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