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________________ २२२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, २, २७. रूवाणि तत्तियाणि सूचिअंगुलाणि हवंति । णिरुत्ती गदा । वियप्पो दुविहो, हट्टिमवियप्पो उवरिमवियप्पो चेदि । तत्थ हेट्टिमवियप्पं वत्तइस्सामो। आवलियाए असंखेज्जदिभागेण सूचिअंगुले भागे हिदे लद्धेण तं चेव गुणिदे पंचिदियतिरिक्खमिच्छाइटिअवहारकालो होदि । अहवा तेणेव भागहारेण सूचिअंगुलपढमवग्गमूले भागे हिदे लद्रेण तं चेव गुणेऊण तेण सूचिअंगुले गुणिदे पंचिंदियतिरिक्खमिच्छाइडिअवहारकालो होदि । एवमसंखेज्जाणि वग्गट्ठाणाणि हेट्ठा ओसरिऊण आवलियाए असंखेज्जदिभागेण आवलियाए भागे हिदाए जं लद्धं तेण तं चेव गुणिय तस्सुवरिमवग्गं गुणिय एवं जाव सूचिअंगुलेत्ति णिरंतरं सबवग्गाणं अण्णोण्णब्भासे कए पंचिंदियतिरिक्खमिच्छाइटिअवहारकालो होदि । वेलवे हेट्ठिमवियप्पो गदो। अट्ठरूवे वत्तइस्सामो। आवलियाए असंखेज्जदिभागेण गुणिदसूचिअंगुलेण घणंगुले भागे हिदे पंचिदियतिरिक्खमिच्छाइडिअवहारकालो होदि । तं जहा-सूचिअंगुलेण' घणंगुले भागे हिदे पदरंगुलमागच्छदि । पुणो आवलियाए असंखेज्जदिभाएण पदरंगुले भागे हिदे पंचिंदियतिरिक्खमिच्छाइद्विअवहारकालो होदि। घणाघणे हेट्ठिमवियप्पं वत्तइस्सामो। आवलियाए है। इसप्रकार निरुक्तिका वर्णन समाप्त हुआ। विकल्प दो प्रकारका है, अधस्तन विकल्प और उपरिम विकल्प । उनमेंसे अधस्तन विकल्पको बतलाते हैं- आवलीके असंख्यातवें भागसे सूच्यंगुलके भाजित करने पर जो लब्ध आवे उससे उसी सूच्यंगुलके गुणित करने पर पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टि अवहारकालका प्रमाण होता है । अथवा, उसी आवलीके असंख्यातवें भागरूप भागहारसे सूच्यंगुलके प्रथम वर्गमूलके भाजित करने पर जो लब्ध आवे उससे सूच्यंगुलके प्रथम वर्गमूलको गुणित करके जो लब्ध आवे उससे सूच्यंगुलके गुणित करने पर पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टि अवहारकाल होता है। इसीप्रकार असंख्यात वर्गस्थान नीचे जाकर आवलीके असंख्यातवें भागसे आवलीके भाजित करने पर जो लब्ध आवे उससे उसी आवलीको गुणित करके पुनः उस गुणित राशिसे उस आवलीके उपरिम वर्गको गुणित करके इसीप्रकार गुणित करते हुए सूच्यंगुलपर्यंत संपूर्ण वर्गोंके निरन्तर परस्पर गुणित करने पर पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टि अवहारकाल होता है। इसप्रकार द्विरूपमें अधस्तन विकल्प समाप्त हुआ। अब अष्टरूपमें अधस्तन विकल्प बतलाते हैं- आवलीके असंख्यातवें भागसे सूच्यंगुलको गुणित करके जो लब्ध आवे उससे धनांगुल के भाजित करने पर पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टि अवहारकाल होता है। उसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है-सूच्यंगुलका घनांगुलमें भाग देने पर प्रतरांगुल आता है। पुनः आवलीके असंख्यातवें भागसे प्रतरांगुलके भाजित करने पर पवेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टि अवहारकाल होता है। १ अ-आ-प्रत्योः । अंगुलस्स' क-प्रती · अंगुल' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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