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________________ ९६] छक्खंडागमे जीवहाणं [१, २, १४. जीवा केवलणाणं उप्पाएंति, दोसु समएसु दो दो जीवा जदि केवलणाणं उप्पाएंति, तो असमयसंचिदसजोगिजिणा वावीस भवंति। असु सिद्धसमएसु जदि वावीस सजोगिजिणा लभंति तो तिण्णिलक्ख-छव्वीससहस्स-सत्तसय अठ्ठावीसमेत्त-सिद्धसमएसु केत्तिया सजोगिजिणा लब्भंति ति तेरासिए कए अहलक्ख-अट्ठाणउदिसहस्स-दुरहिय-पंचसदमेत्ता सजोगिजिणा लद्धा हवंति । वुत्तं च अद्वेव सयसहस्सा अट्ठाणउदी तहा सहस्साई । संखा जोगिजिणाणं पंचसद विउत्तरं जाण ॥ ४८ ॥ एदीए दिसाए बहुएहि पयारेहि सजोइरासिस्स पमाणमाणेयव्यं । तं जहाजम्हि पुविल्लसिद्धकालस्स अद्धमेत्तो सिद्धकालो लब्भइ तम्हि तेरासियमेवमाणेयव्यं । तं जहा- अहसु सिद्धसमएसु जदि चउत्तालीसमेत्ता सजोगिजिणा लब्भंति तो एक्क. लक्ख-तिसहिसहस्स-तिण्णिसय-चउसहिमेत्त-सिद्धसमयाणं केत्तिया सजोगिजिणा लब्भंति त्ति तइरासिए कदे पुठिवल्लो चेव सजोगिरासी उप्पज्जदि । जम्हि आउ व्वे पुबिल्लसिद्धकालस्स चउभागमेत्तो सिद्धकालो लब्भइ तम्हि एवं तइरासि कायव्वं । अहसु सिद्धसमएसु जदि अहरासीदि सजोगिजिणा लब्भंति तो एगासीदिसहस्स-छस्सय-वासीदि छह सिद्ध समयोंमें तीन तीन जीव, और दो समयों में दो दो जीव यदि केवलज्ञान उत्पन्न करते हैं, तो आठ समयों में संचित हुए सयोगी जिन बावीस होते हैं। इसप्रकार यदि आठ सिद्ध समयों में बावीस सयोगी जिन प्राप्त होते हैं तो तीन लाख छव्वीस हजार सातसौ अट्ठाईस सिद्ध समयों में कितने सयोगी प्राप्त होंगे, इसप्रकार त्रैराशिक करने पर आठ लाख अट्ठानवे हजार पांचसौ दो सयोगी जिन प्राप्त हो जाते हैं। कहा भी है सयोगी जीवोंकी संख्या आठ लाख अट्ठानवे हजार पांचसौ दो जानो ॥४८॥ इसी दिशाले अनेक प्रकारसे सयोगी जीवोंकी राशि लाना चाहिये । आगे उसीका स्पष्टीकरण करते हैं ___ जहां पर पहलेके सिद्धकालका अर्धमात्र सिद्धकाल प्राप्त होता है वहां पर इसप्रकार त्रैराशिक लाना चाहिये । वह इसप्रकार है-आठ सिद्ध समयोंमें यदि चवालीस सयोगी जिन प्राप्त होते हैं, तो एक लाख सठ हजार तीनसौ चौसठ सिद्ध समयों में कितने सयोगी जिन प्राप्त होंगे, इसप्रकार त्रैराशिक करने पर पूर्वोक्त ८९८५०२ सयोगी जीवोंकी ही राशि आ जाती है । अथवा, जिसमें पहलेके सिद्धकालका चौथा भागमात्र सिद्धकाल प्राप्त होता है वहां पर इस प्रकार त्रैराशिक करना चाहिये । आठ सिद्ध समयोंमें यदि अठासी सयोगी जिन प्राप्त होते हैं तो इक्यासी हजार छहसौ ब्यासीमात्र सिद्ध समयों में कितने सयोगी जिन प्राप्त होंगे इस १ गो. जी. ६२९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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