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________________ ४१२) छक्खंडागमे जीवाणं [१, २, ११७. भवंति, लद्धिसंपण्णरासीणं बहूणमसंभवादो। ते च एत्तिया इदि सम्म ण णव्वंति, संपहियकाले उवएसाभावादो । णवरि मणपज्जवणाणिणो उवसामगा दस १०, खवगा २० । (केवलणाणीसु सजोगिकेवली अजोगिकेवली ओघं ॥ १४७॥) सुगममिदं सुत्तं । भागाभागं वत्तइस्सामो । सयजीवरासिमणंतखंडे कए बहुखंडा मदि-सुदअण्णाणिमिच्छाइट्ठिणो भवंति । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा केवलणाणिणो भवंति । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा विभंगणाणिमिच्छाइहिणो होति । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा आभिणिबोहिय-सुदणाणिअसंजदसम्माइट्ठिणो भवंति । ते चेव पडिरासिं काऊण आवलियाए असंखेज्जदिभाएण भागे हिदे लद्धं तम्हि चेव अवणिदे ओहिणाणिअसंजदसम्माइट्ठिणो होति । सेसं संखेजखंडे कए बहुखंडा मिस्सदुणाणिसम्मामिच्छाइट्ठिणो होंति । ते चेव पडिरासिं काऊण आवलियाए असंखेज्जदिभाएण भागे हिदे लद्धं तम्हि शानवाले जीवोंके संख्यातवें भागमात्र होते हैं, क्योंकि, लब्धिसंपन्न राशियां बहुत नहीं हो सकती हैं। फिर भी वे इतने ही होते हैं, यह ठीक नहीं जाना जाता है, क्योंकि वर्तमानकालमें इसप्रकारका उपदेश नहीं पाया जाता है। इतना विशेष है कि मनःपर्ययशानी उपशामक दश और क्षपक वीस होते हैं। केवलज्ञानियोंमें सयोगिकेवली और अयोगिकेवली जीव ओघप्ररूपणाके समान हैं॥१४७॥ यह सूत्र सुगम है। अब भागाभागको बतलाते हैं- सर्व जीवराशिके अनन्त खंड करने पर उनसे बहुभाग मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीव हैं। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर उनमें से बहभाग केवलज्ञानी जीव हैं। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर बहभाग विभंगवानी मिथ्यादृष्टि जीव हैं । शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर बहुभाग आभिनिबोधिकज्ञानी और श्रुतज्ञानी असंयतसम्यग्दृष्टि जीव हैं। इन्हीं आभिनिबोधिकहानी और श्रुतज्ञानी असंयतसम्यग्दृष्टियोंकी प्रतिराशि करके और उसे आवलीके असंख्यातवें भागसे भाजित करने पर जो लब्ध आवे उसे उसी प्रतिराशिमेंसे घटा देने पर अवधिज्ञानी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवराशि होती है। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग मिश्र दो ज्ञानवाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव होते हैं। उन्हीं मिश्र दो शानवाले जीवोंके प्रमाणकी प्रतिराशि करके और उसे आवलोके असंख्यातवें भागसे भाजित करने पर जो लब्ध आवे १ प्रतिषु ' तद्धि' इति पाठः। २ केवलज्ञानिनः सयोगा अयोगाश्च सामान्योक्तसंख्याः । स. सि. १, ८. केवलिणो सिद्धादो होति अदिरित्ता ॥ गो. जी. ४६१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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