SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 534
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १, २, १४६.] दवपमाणाणुगमे णाणमग्गणापमाणपरूवणं [४४१ भाएण गुणिदे दुणाणिसंजदासंजदअवहारकालो होदि। तम्हि आवलियाए असंखेज्जदिभाएण गुणिदे तिणाणिसंजदासजदबहारकालो होदि । एदेहि अवहारकालेहि पलिदोवमे भागे हिदे सग-सगरासीओ हवंति । पमत्तादीणं पमाणं ओघमेव भवदि, विसेसाभावादो। ओहिणाणिपमत्तादीणं पि ओघत्तं पत्ते तप्पडिसेहट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि__णवरि विसेसो, ओहिणाणिसु पमत्तसंजदप्पहुडि जाव खीणकसायवीयरायछदुमत्था त्ति दव्वपमाणेण केवडिया, संखेज्जा ॥ १४५॥ __ ओहिणाणिणो पमत्तसंजदा अपमत्तसंजदा च सग-सगरासिस्स संखेजदिभागमेचा भवंति । किंतु एत्तिया इदि परिप्फुडं ण णव्यंति, संपहियकाले गुरूवएसाभावादो । णवरि ओहिणाणिणो उवसामगा चोद्दस १४, खवगा अट्ठावीस २८। मणपज्जवणाणीसु पमत्तसंजदप्पहुडि जाव खीणकसायवीदरागछदुमत्था त्ति दव्वपमाणेण केवडिया, संखेज्जा ॥ १४६ ॥ पमत्तापमत्तगुणट्ठाणेसु मणपज्जवणाणिणो तत्थट्टियदुणाणीणं संखेज्जदिभागमेत्ता करने पर दो ज्ञानवाले संयतासंयतोंका अवहारकाल होता है। इसे आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर तीन ज्ञानवाले संयतासंयतोंका अवहारकाल होता है। इन अवहारकालोंसे पृथक् पृथक् पल्योपमके भाजित करने पर अपनी अपनी राशियां आती हैं। प्रमत्तसंयत आदिका प्रमाण ओघरूप ही होता है क्योंकि वहां विशेष का अभाव है। अवधिज्ञानी प्रमत्तसंयत आदिके प्रमाणको ओघत्वकी प्राप्ति होने पर उसका प्रतिषेध करनेकेलिये आगेका सूत्र कहते हैं इतना विशेष है कि अवधिज्ञानियों में प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर क्षीणकषाय वीतराग छमस्थ गुणस्थानतक प्रत्येक गुणस्थानमें जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? संख्यात हैं ॥ १४५॥ ___ अवधिज्ञानी प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत जीव अपनी अपनी राशिके संख्यातवें भागमात्र होते हैं, किन्तु वे इतने ही होते हैं यह स्पष्ट नहीं जाना जाता है, क्योंकि, वर्तमानकालमें इसप्रकारका गुरुका उपदेश नहीं पाया जाता है। इतना विशेष है कि अवधिज्ञानी उपशामक चौदह और क्षपक अट्ठाईस होते हैं। मनःपर्यायज्ञानियोंमें प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर क्षीणकषाय वतिराग छ अस्थ गुणस्थानतक जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? संख्यात हैं ॥ १४६॥ प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानोंमें मनःपर्ययशानी जीव वहां स्थित दो १ प्रमत्तसंयतादयः क्षीणकसायान्ताः संख्येयाः। स. सि. १, ८. २ मनःपर्ययहानिनः प्रमत्तसंयतादयः क्षीणकषायान्ताः संख्येयाः । स. सि. १, ८. मणपज्जा संखेम्जा ॥ गो. मी. ४६१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy