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________________ ................... १, २, १०२.] दव्वपमाणाणुगमे कायमग्गणाभागाभागपरूवणं वेइंदिय-तेइंदिय-चउरिंदिय-पंचिंदियअपज्जत्तजीवे एगढे कदे तसकाइयअपजत्ता हवंति । कधं तेसिं परूवणा पंचिंदियअपज्जत्तपरूवणाए समाणा भवदि ? ण एस दोसो, उभयत्थ पदरंगुलस्स असंखेजदिभागं भागहारं पेक्खिऊण तहोवएसादो। अत्थदो पुणो तेसि विसेसो गणहरेहि वि ण वारिजदे। भागाभागं वत्तइस्सामो। सव्वजीवरासिं संखेजखंडे कए बहुखंडा सुहुमणिगोदजीवपज्जत्ता होति । सेसमसंखेजखंडे कए बहुखंडा सुहुमणिगोदअपज्जत्ता होति । सेसमसंखेज्जखंडे कर बहुखंडा बादरणिगोदअपज्जत्ता होति । सेसं अणतखंडे कए बहुखंडा बादरणिगोदपज्जत्ता होति । सेसे अणंतखंडे कए बहुखंडा अकाइया हति । सेसरासीदो असंखेज्जलोगपमाणमवणेऊण पुध ठविय पुणो सेसरासिमसंखेज्जलोएण खंडिय एयखंडमवणेऊण तं पि पुध ठविय पुणो सेसरासिं चत्तारि समजे काऊग अवणिदएयखंडं असंखेज्जलोगेण खंडिय तत्थ बहुखंडे पढमपुंजे पक्खित्ते सुहुमवाउकाइया होति । सेसेगखंडमसंखेज्जलोगेण खंडिय तत्थ बहुखंडा शंका-जब कि द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय लम्ध्यपर्याप्तकों को एकत्र करने पर त्रसकायिक लध्यपर्याप्त जीव होते हैं, तब फिर बसकायिक लयपर्याप्त कोंकी प्ररूपणा पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तोंकी प्ररूपणाके समान कैसे हो सकती है? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, उभयत्र अर्थात् पंचेन्द्रिय लध्यपर्याप्तक और प्रसकायिक लम्ध्यपर्याप्तक, इन दोनोंका प्रमाण लानेके लिये प्रतरांगुलके असंख्यातवें भागरूप भागहारको देखकर इस प्रकारका उपदेश दिया। अर्थकी अपेक्षा जो उन दोनोंकी प्ररूपणामें विशेष है उसका गणधर भी निवारण नहीं कर सकते हैं। ___अब भागाभागको बतलाते हैं- सर्व जीवराशिके संख्यात खंड करने पर उनमें से बहुभागप्रमाण सूक्ष्म निगोद पर्याप्त जीघ हैं। शेष एक भागके असंण्यात खंड करने पर उनमेंसे बहुमागप्रमाण सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त जीव हैं। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर उनमेंसे बहुभागप्रमाण बादर निगोद अपर्याप्त जीव हैं। शेष एक भागके अनन्त खंड करने पर उनमेंसे बहुभागप्रमाण बादर निगोद पर्याप्त जीव हैं। शेष एक भागके अनन्त खंड करने पर उनमेंसे बहुभागप्रमाण अकायिक जीव हैं। शेष एक भागप्रमाण राशिमेंसे असंख्यात लोकप्रमाण राशिको निकालकर पृथक् स्थापित करके पुनः शेष राशिको असंख्यात लोकप्रमाणसे खंडित करके जो एक खंड आवे उसे निकालकर और उसे भी पृथक् स्थापित करके पुन: जो शेष बहुभाग राशि है उसके चार समान पुंज करके निकाले हुए पृथक् स्थापित एक खंडको असंख्यात लोकप्रमाणसे खंडित करके उनमेंसे बहुभागोंको प्रथम पुंजमें मिला देने पर सूक्ष्म वायुकायिक जीवोंका प्रमाण होता है । शेष एक खंडको असंख्यात लोकप्रमाणसे खंडित १ प्रतिषु · अपज्जत्तजीवेहितो' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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