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________________ १९२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, २, १०१. सेसघियप्पा पडिसिद्धा ति दट्ठव्या । जगपदर कदजुम्मं वग्गसमुट्ठिदं पदरंगुलं पि कदजुम्म वग्गसमुट्टिदं चेव । तेसिं विदसवभागहारा वि वग्गसमुट्टिदा कदजुम्मं चेदि जाणावण?मंगुलस्स असंखेजदिभागवग्गवयणं । अण्णहा तस्स फलाणुवलंभादो। पदरंगुलस्स असंखेदिभाएण पदरंगुलस्स संखेजदिभागेण च जगपदरे भागे हिदे जहाकमेण तसकाइया तसकाइयपज्जत्ता च भवंति त्ति वुत्तं भवदि । सासणसम्माइटिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति ओघं ॥१०॥ एत्थ तसकाइय-तसकाइयपज्जत्ता इदि पुवसुत्तादो अणुवट्टदे । कुदो ? उवरि पुध अपज्जत्तसुत्तारंभण्णहाणुववत्तीदो। सेसं सुगमं । । तसकाइयअपज्जत्ता पंचिंदियअपज्जत्ताण भंगो ॥ १०२ ॥ शेष विकल्प प्रतिषिद्ध हो जाते हैं, ऐसा समझना चाहिये । जगप्रतर कृतयुग्म संख्यारूप और वर्गसमुत्थित है। प्रतरांगुल भी कृतयुग्म संख्यारूप और वर्गसमुत्थित है। उसीप्रकार उनके स्थापित भागहार भी वर्गसमुत्थित और कृतयुग्मरूप हैं, इसका ज्ञान करानेके लिये 'अंगुलके असंख्यातवें भागका वर्ग' यह वचन दिया, अन्यथा उसकी दूसरी कोई सफलता नहीं पाई जाती है। प्रतरांगुलके असंख्यातवें भागसे और प्रतरांगुलके संख्यातवें भागसे जगप्रतरके भाजित करने पर यथाक्रमसे त्रसकायिक और प्रसकायिक पर्याप्त जीव होते हैं, यह इस सूत्रका अभिप्राय है। सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थानतक प्रत्येक गुणस्थानमें त्रसकायिक और त्रसकायिक पर्याप्त जीव सामान्य प्ररूपणाके समान हैं ॥१.१॥ इस सूत्रमें 'सकायिक और त्रसकायिक पर्याप्त' इस वचनकी पूर्व सूत्रसे अनुवृत्ति होती है, क्योंकि, आगेके लब्ध्यपर्याप्त जीवोंके प्रमाणके प्रतिपादन करनेवाले सूत्रका आरंभ पृथकरूपसे अन्यथा बन नहीं सकता था। शेष कथन सुगम है। - विशेषार्थ-चूंकि आगे सकायिक लब्ध्यपर्याप्त जीवोंके प्रमाणका प्रतिपादन करनेवाला सूत्र पृथक्प से रचा गया है, इससे प्रतीत होता है कि पूर्वोत्त सूत्रमें 'सकायिक और प्रसकायिक पर्याप्त' पदकी अनुवृत्ति अपने पूर्ववर्ती सूत्रसे हुई है। इस कथनका तात्पर्य यह है कि यद्यपि सामान्य त्रसकायिक जीवोंमें लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंका अन्तर्भाव हो जाता है फिर भी लब्ध्यपर्याप्तक जीव गुणस्थानप्रतिपन्न नहीं होते हैं, अर्थात् मिथ्यादृष्टि ही होते हैं। अतएव इस विषयका ज्ञान करानेके लिये त्रसकायिकोंके प्रमाणके अनन्तर बीचमें सासादनसम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थानप्रतिपन्न जीवोंका प्रमाण कह कर अनन्तर लब्ध्यपर्याप्त त्रसकायिकोंका प्रमाण कहा । त्रसकायिक लब्ध्यपर्याप्त जीवोंका प्रमाण पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकोंके प्रमाणके समान है ॥ १०२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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