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________________ १, २, १४०. ] दव्यमाणागमे कसायमग्गणा अप्पा बहुगपरूवणं [ ४३३ होदि । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा कोधकसाय सम्मामिच्छाइट्ठिरासी होदि । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा लोभकसायसासणसम्माहिरासी होदि । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा मायकसायसा सणसम्माइट्ठिरासी होदि । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा माणकसायसासणसम्माइरासी होदि । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा कोधकसायसास सम्माडिरासी होदि । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा चउकसाय संजदासंजदासी होदि । तदो संजदासंजदरासिस्स असंखेज्जदिभागमवणिय सेसं चत्तारि समपुंजे करिय वेदव्वं | पुणे पुव्वमवणिदए यखंड मसंखेज्जखंड करिय तत्थ बहुखंडे पढमपुंजे पक्खित्ते लोभकसाइसजदासंजदरासी होदि । सेसमसंखेज्जखंडे करिय बहुखंडे विदियपुंजे पक्खिते मायकसाइसजदासंजदरासी होदि । सेसमसंखेज्जखंडं करिय बहुखंडे तदियपुंजे पक्खिते कोधक साहसं जदा संजदरासी होदि । सेसं चउत्थपुंजे पक्खित्ते माणकसाइसंजदासंजदरासी होदि । सेसं जाणिऊण णेयव्त्रं । अप्पा बहुगं तिविहं सत्थाणादिभेषण । तत्थ सत्थाणं वत्तइस्लामो । मिच्छाइट्ठीणं सत्थाणं णत्थि रासीदो मिच्छाइद्विधुवरासिस्स अधिगत्तादो । असंजदसम्माइट्टि पहुडि जाव संजदासंजदा ति सत्थाणस्स मूलोघभंगो । जीवराशि है। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग क्रोधकषाय सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवराशि है। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग लोभकषाय सासादनसम्यग्दृष्टि जविराशि है। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग मायाकषाय सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशि है । शेष एक भाग के संख्यात खंड करने पर बहुभाग मानकषाय सासादन सम्यग्दृष्टि जीवराशि है। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर वहुभाग क्रोधकषाय सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशि है। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर बहुभाग चार कषाय संयतासंयत जीवराशि है । तदनन्तर संयतासंयत जीवराशिके असंख्यातवें भागको घटा कर शेषके चार समान पुंज करके स्थापित कर देना चाहिये । पुनः पहले घटा कर रक्खे हुए एक खंडके असंख्यात खंड करके उनमें से बहुभाग प्रथम पुंजमें प्रक्षिप्त करने पर लोभकषाय संयतासंयत जीवराशि होती है। शेष एक भागके असंख्यात खंड करके उनमें से बहुभाग दूसरे पुंजमें मिला देने पर मायाकषायी संयतासंयत जीवराशि होती है । शेष एक भागके असंख्यात खंड करके बहुभाग तीसरे पुंजमें मिला देने पर क्रोधकषायी संयतासंयत जीवराशि होती है । शेष एक भागको चौथे पुंज में मिला देने पर मानकषायी संयतासंयत जीवराशि होती है । शेष कथन जानकर ले जाना चाहिये । स्वस्थान आदिके भेदसे अल्पबहुत्व तीन प्रकारका है। उनमेंसे स्वस्थान अल्पबहुत्वको बतलाते हैं— मिथ्यादृष्टि जीवोंका स्वस्थान अल्पबहुत्व नहीं पाया जाता है, क्योंकि, मिथ्यादृष्टि जीवराशि से मिथ्यादृष्टि ध्रुवराशि अधिक है । असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर संयतासंयत गुणस्थानतक स्वस्थान अल्पबहुत्व मूलोघ स्वस्थान अल्पबहुत्व के समान है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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