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________________ १, २, १.] दव्वपमाणाणुगमे णिदेसपरूवणं बहिरर्थो बहुव्रीहिः परं तत्पुरुषस्य च । पूर्वमव्ययीभावस्य द्वन्द्वस्य तु पदे पदे ॥ ७ ॥ संख्यापूर्वकस्तत्पुरुषो द्विगुः समासः, यथा पञ्चनदमित्यादि । एकाधिकरणः तत्पुरुषः कर्मधारय इति । एत्थ चोदगो भणदि- संखा एक्का चेव, एगवदिरित्तदुवादीणमभावादो। सा च एकसंखा सयपदत्थाणमत्थि त्ति जाणिजदि, अण्णहा तेसिमत्थि. त्ताणुववत्तीदो। तदो किं तीए संखापरूवणाए इदि । एत्थ परिहारो वुच्चद- सयलपयत्थाणं जदि एक्का चेव संखा णियमेण भवदि तो सवपदत्थाणं एक्कादो अव्वदिरित्ताणं एगत्तं पसज्जेज्ज । तहा च एगट्ठदंसणे सयलट्ठदंसणं, एगढविणासे सयलट्ठविणासो, एयटुप्पत्तीए सयलटुप्पत्ती जाएज्ज । ण च एवं, तहा अदसणादो । तम्हा पदत्थभेदो इच्छिदव्यो। संते तब्भेदे तत्थ टियसंखाए भेदो भवदि चेव, भिण्णहट्ठियसंखाणाणमेगत्तविरोधादो। होदु एकसंखा चेव बहुवा, ण तदो अण्णा संखा चे ण, समाधान-क्योंकि यहां पर उनका अर्थ घटित नहीं होता है, इसलिये अन्य समासोंका ग्रहण नहीं किया। शंका-उन छहों समासोका क्या अर्थ है ? समाधान-अन्य अर्थप्रधान बहुव्रीहि समास है। उत्तर पदार्थप्रधान तत्पुरुष समास है। अव्ययीभाव समासमें पूर्व पदार्थप्रधान है। द्वन्द्व समासकी प्रत्येक पदमें प्रधानता रहती है ॥७॥ संख्यापूर्वक तत्पुरुषको द्विगु समास कहते हैं, जैसे पंचनद इत्यादि । जहां पर दो पदार्थोंका एक आधार दिखाया जाता है ऐसे तत्पुरुषको कर्मधारय समास कहते हैं।। शंक. - यहां पर शंकाकार कहता है कि संख्या एकरूप ही है, क्योंकि, एकको छोड़कर दो आदिक संख्याएं नहीं पाई जाती हैं । और वह एकरूप संख्या संपूर्ण पदार्थों में रहती है ऐसा जाना जाता है। यदि ऐसा न माना जाय तो उन संपूर्ण पदार्थोका अस्तित्व ही नहीं बन सकता है, इसलिये यहां पर उस संख्याकी प्ररूपणासे क्या प्रयोजन है ? समाधान-आगे उपर्युक्त शंकाका परिहार करते हैं। संपूर्ण पदार्थोके नियमसे एक ही संख्या होती है, यदि ऐसा मान लिया जाय तो वे संपूर्ण पदार्थ एकरूप संख्यासे अभिन्न हो जाते हैं, इसलिये उन सबको एकत्वका प्रसंग आ जाता है। और ऐसा मान लेने पर एक पदार्थका ज्ञान होने पर संपूर्ण पदार्थोंका शान, एक पदार्थके विनाश होने पर संपूर्ण पदार्थोंका विनाश और एक पदार्थकी उत्पत्ति होने पर संपूर्ण पदार्थोकी उत्पत्ति होने लगेगी। परंतु ऐसा है नहीं, क्योंकि, ऐसा देखा नहीं जाता है, इसलिये पदार्थों में भेद मान लेना चाहिये । इसप्रकार पदार्थों में भेदके सिद्ध हो जाने पर उनमें रहनेवाली संख्यामें भेद सिद्ध हो ही जाता है, क्योंकि, अनेक पदार्थों में रहनेवाली संख्याओंमें एकत्व अर्थात् अभेद माननेमें विरोध आता है। शंका-एक यह संख्या ही अनेक रूप हो जाओ, परंतु उससे भिन्न संख्या नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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