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________________ णमोकारमंत्रके सादित्व-अनादित्वका निर्णय इसप्रकार मूडबिद्रीकी प्रति व प्रचलित प्रतियोंके पाठकी पूर्णतया रक्षा हो जाती है, उसका वेदनाखंडके आदिमें किये गये विवेचनसे ठीक सामंजस्य बैठ जाता है, तथा उससे धवलाकारके णमोकारमंत्रके कर्तृत्वसंबन्धी उस मतकी पूर्णतया पुष्टि हो जाती है जिसका परिचय हम विस्तारसे गत द्वितीय भागकी प्रस्तावनामें करा आये हैं । णमोकारमंत्रके कर्तृत्वसंबन्धी इस निष्कर्षद्वारा कुछ लोगोंके मतसे प्रचलित एक मान्यताको बड़ी भारी ठेस लगती है। वह मान्यता यह है कि णमोकारमंत्र अनादिनिधन है, अतएव यह नहीं माना जा सकता कि उस मंत्रके आदिकर्ता पुष्पदन्ताचार्य हैं । तथापि धवलाकारके पूर्वोक्त मतके परिहार करनेका कोई साधन व प्रमाण भी अबतक प्रस्तुत नहीं किया जा सका। गंभीर विचार करनेसे ज्ञात होता है कि णमोकारमंत्रसंबन्धी उक्त अनादिनिधनत्वकी मान्यता व उसके पुष्पदन्ताचार्यद्वारा कर्तृत्वकी मान्यतामें कोई विरोध नहीं है । भावकी ( अर्थकी ) दृष्टिसे जबसे अरिहंतादि पंच परमेष्ठीकी मान्यता है तभीसे उनको नमस्कार करने की भावना भी मानी जा सकती है। किंतु णमो अरिहंताणं' आदि शब्दरचनाके कर्ता पुष्पदन्ताचार्य माने जा सकते हैं। इस बातकी पुष्टिके लिये मैं पाठकोंका ध्यान श्रुतावतारसंबन्धी कथानककी ओर आकर्षित करता हूं। धवला, प्रथम भाग, पृ.५५ पर कहा गया है कि 'सुत्तमोइपणं अस्थदो तित्थयरादो, गंथदो गणहरदेवादो ति' अर्थात् सूत्र अर्थप्ररूपणाकी अपेक्षा तीर्थकरसे, और ग्रंथरचनाकी अपेक्षा गणधरदेवसे अवतीर्ण हुआ है। यहां फिर प्रश्न उत्पन्न होता हैद्रव्यभावाभ्यामकृत्रिमस्वतः सदा स्थितस्य श्रुतस्य कथमवतार इति ? अर्थात् द्रव्य-भावसे अकृत्रिम होनेके कारण सर्वदा अवस्थित श्रुतका अवतार कैसे हो सकता है ! इसका समाधान किया जाता है-- एतत्सर्वमभविष्यद्यदि द्रव्यार्थिकनयो ऽ विवक्षिष्यत् । पर्यायार्थिकनयापेक्षायामवतारस्तु पुनर्घटत एव । अर्थात् यह शंका तो तब बनती जब यहां द्रव्यार्थिक नयकी विवक्षा होती । परंतु यहाँपर पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा होनेसे श्रुतका अवतार तो बन ही जाता है। आगे चलकर पृष्ठ ६० पर कर्ता दो प्रकारका बतलाया गया है, एक अर्थकर्ता व दूसरा ग्रंथकर्ता । और फिर विस्तारके साथ तीर्थंकर भगवान् महावीरको श्रुतका अर्थकर्ता, गौतम गणधरको द्रव्यश्रुतका ग्रंथकर्ता तथा भूतबलि-पुष्पदन्तको भी खंडसिद्धान्तकी अपेक्षा कर्ता या उपतंत्रकर्ता कहा है । यथा-- तत्थ कत्ता दुविहो, अत्थकत्ता गंथकत्ता चेदि। महावीरोऽर्थकर्ता।... एवंविधो महावीरोऽर्थकर्ता। ... तदो भावसुदस्स अस्थपदाणं च तिस्थयरो कत्ता । तिस्थयरादो सुदपजाएण गोदमो परिणदो ति दब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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