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________________ १, २, १६०.] दम्वपमाणाणुगमे दंसणमग्गणापमाणपखवणं [१५५ कुदो ? चक्खुदसणक्खओवसमरहिदगुणपडिवण्णाभावादो। अचक्खुदसणीसु मिच्छाइट्टिप्पहुडि जाव खीणकसायवीदरागछदुमत्था त्ति ओघ ॥ १५९ ॥ किं कारणं? अचक्खुदसणखओवसमविरहिदछदुमत्थजीवाभावादो। संपहि अचक्खुदसणीणं धुवरासी बुच्चदे । तं जहा- सिद्ध तेरसगुणपडिवण्णरासिमचक्खुदंसणमिच्छाइट्ठिरासिभजिदतव्वग्गं च सव्वजीवरासिस्सुवरि पक्खित्ते अचक्खुदंसणिमिच्छाइविधुवरासी होदि । एदेण सधजीवरासिस्सुवरिमवग्गे भागे हिदे अचक्खुदंसणिमिच्छाइट्ठिदव्वं होदि । सासणादीणमोघम्हि भणिदअवहारो चेव वत्तव्यो, विसेसाभावादो। ओहिंदसणी ओहिणाणिभंगों ॥ १६०॥ क्योंकि, गुणस्थानप्रतिपन्न जीव चक्षुदर्शनरूप क्षयोपशमसे रहित नहीं होते हैं । अर्थात् गुणस्थानप्रतिपन्न प्रत्येक जीवके चक्षुदर्शनावरण कर्मका क्षयोपशम पाया जाता है, अतएव गुणस्थानप्रतिपन्न चक्षुदर्शनी जीवोंके प्रमाणकी प्ररूपणा ओघप्ररूपणाके समान है। ____ अचक्षुदर्शनियोंमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर क्षीणकषायवीतरागछमस्थ गुणस्थानतक प्रत्येक गुणस्थानमें जीव ओघप्ररूपणाके समान हैं ॥ १५९ ॥ शंका-अचक्षुदर्शनी जीवोंका प्रमाण सामान्य प्ररूपणाके समान है, इसका क्या । समाधान- क्योंकि, अचक्षुदर्शनरूप क्षयोपशमसे रहित छमस्थ जीव नहीं पाये जाते हैं, इसलिये उनका प्रमाण ओघप्रमाणके समान कहा है। अब अचक्षुदर्शनी जीवोंकी धुवराशिका कथन करते हैं। वह इसप्रकार है-सिद्धराशि और सासादनसम्यग्दृष्टि आदि तेरह गुणस्थानप्रतिपन्न जीवराशिको तथा मिथ्यादृष्टि राशिसे भाजित सिद्धराशि और गुणस्थानप्रतिपन्न राशिके वर्गको सर्व जीवराशिमें मिला देने पर अचक्षुदर्शनी मिथ्यादृष्टि जीवोंकी धुवराशि होती है। इस ध्रुवराशिसे सर्व जीवराशिके उपरिम वर्गके भाजित करने पर अचक्षुदर्शनी मिथ्यादृष्टियोंका द्रव्यप्रमाण होता है। अवक्षुदर्शनी सासादनसम्यग्दृष्टि आदि जीवोंका ओघनरूपणामें कहा गया अवहारकाल ही कहना चाहिये, क्योंकि, गुणस्थानप्रतिपन्न ओघ अवहारकालसे अचक्षुदर्शनी गुणस्थानप्रतिपन्न जीवोंके अवहारकालमें कोई विशेषता नहीं है। अवधिदर्शनी जीव अवधिज्ञानियोंके समान हैं ॥ १६० ॥ १ अचक्षुर्दर्शनिनो मिथ्याष्टयोऽनन्तानन्ताः । उभये च सासादनसम्यग्दृष्टयादयः क्षीणकषायान्ता: सामान्योक्तसंख्याः । स. सि. 1, ८. एइंदियपहुदीणं खीणकसायंतणंतरासीणं । जोगो अचक्खुदंसणजीवाणं होदि परिमाणं॥ गो.जी.४८८. २ अवधिदर्शनिनोऽवधिज्ञानिवत् । स. सि. १,८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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