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________________ ४५१] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, २, १५८. दसणोवओगसहिदजीवा त्ति ? पढमपक्खे चक्खुदंसणिमिच्छाइट्ठिअवहारकालेण पदरंगुलस्स असंखेज्जदिभाएण होदव्वं, चदु-पंचिंदियापज्जत्तरासीणं पाहण्णादो । ण विदियपक्खो वि, चक्खुदंसणद्विदीए' अंतोमुहत्तप्पसंगादो ति? एत्थ परिहारो वुच्चदे। असंखेज्जदिभाए चक्खिदियपडिभागे चक्खुदंसणुवजोगपाओग्गचक्खुदसणखओवसमा चक्खुदंसणिणो त्ति जेण वुचंति तेण लद्धिअपज्जत्ताणं गहणं ण भवदि, तेसु चविखदियणिप्पत्तिविरहिदेमु चक्खुदंसणोवओगसहिदतक्खओवसमाभावादो । संखेज्जसागरोवममेत्ता चक्खुदंसणिहिदी वि ण विरुज्झदे, खओवसमस्स पहाणत्तब्भुवगमादो। तदो पदरंगुलस्स संखेजदिभागमेत्तो चक्खुदंसणिमिच्छाइटिअवहारकालो होदि त्ति सिद्धं, चदु-पंचिंदियपज्जत्तरासीणं पहाणत्तभुवगमादो। सासणसम्माइटिप्पहुडि जाव खीणकसायवीदरागछदुमत्था ति ओघ ॥ १५८ ॥ पक्षके ग्रहण करने पर चक्षुदर्शनी मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल प्रतरांगुलके असंख्यातवें भागमान होना चाहिये, क्योंकि, ऐसी स्थितिमें चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त और पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंकी प्रधानता है । इसप्रकार पहला पक्ष तो ठीक नहीं है । उसीप्रकार दूसरा पक्ष भी ठीक नहीं है, क्योंकि, उसके मानने पर चक्षुदर्शनकी स्थितिको अन्तर्मुहूर्तमात्रका प्रसंग आ जाता है? समाधान- आगे पूर्वोक्त शंकाका परिहार करते हैं-चक्षुदर्शन वाले मिथ्यादृष्टियोंका भवहारकाल सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागरूप आक्षेपका परिहार यह है कि चूंकि यक्षुदर्शनोप. योगके योग्य वक्षुदर्शनावरणके क्षयोपशमवाले जीव चक्षुदर्शनी कहे जाते हैं, इसलिये यहां पर लभ्यपर्याप्त जीवोंका ग्रहण नहीं होता है, क्योंकि, वे जीव चक्षु इन्द्रियकी निष्पत्तिसे रहित होते है, इसलिये उनमें चक्षुदर्शनरूप उपयोगसे युक्त चक्षुदर्शनरूप क्षयोपशम नहीं पाया जाता है। तथा चक्षुदर्शनवाले जीवोंकी स्थिति संख्यातसागरोपममात्र होती है, यह कथन भी विरोधको प्राप्त नहीं होता है, क्योंकि, वहां पर क्षयोपशमकी प्रधानता स्वीकार की है। इसलिये चक्षुदर्शनी मिथ्यापियोंका अवहारकाल प्रतरांगुलके संख्यातवें भागमात्र होता है, यह कथन सिद्ध होता है, क्योंकि, यहां पर चक्षुदर्शनी जीवोंके प्रमाणके कथनमें चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंकी प्रधानता स्वीकार की है। सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर क्षीणकषायवीतरागछमस्थ गुणस्थानतक प्रत्येक गुणस्थानमें चक्षुदर्शनी जीव ओघप्ररूपणाके समान हैं ॥ १५८॥ १ प्रतिषु ' -दसणदिट्ठीए ' इति पाठः । १अ-कप्रलोः पिडिघादे'. आप्रतौ पडिवादे' इति पाठः। ३.चखुदंसीस मिच्छाइट्ठी' उक्कस्सेण वेसागरोषमसहस्साणि 'जी. का. सू. २७९-२८१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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